Published By:धर्म पुराण डेस्क

गुरुतत्त्व का रहस्य

(साधु वेश में एक पथिक)

'गुरु' शब्द का भावार्थ बड़ी सरलता से तब समझ में आता है, जब 'लघु' शब्द का अर्थ का ध्यान रहता है। गुरु वह है, जिसमें लघुता नहीं होती है। जो किसी के द्वारा नहीं हिलता है-जिसे संसार के सुख-भोग की कामनाएँ चंचल नहीं कर पाती हैं और जो सुखद- सुन्दर गुरु वस्तु पर विमुग्ध-लुब्ध नहीं होता है, वही है।

गुरु ज्ञान स्वरूप है। किसी गुरु में देहभाव अथवा देह में गुरुभाव की प्रतिष्ठा करना सत्य की ओट में असत्य की उपासना है। अपने ज्ञान स्वरूप से भगवान् ही परम गुरु हैं। वे ही दुखी प्राणियों के कल्याण के लिये शुद्ध तथा निर्मल – पवित्र अन्तःकरण वाले व्यक्तियों में अपना ज्ञानस्वरूप प्रकाशित-अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों को मानव-समाज महापुरुष, महात्मा और सन्त आदि नाम से समलंकृत करता है। यदि किसी सन्त, महात्मा, महापुरुष नाम वाले व्यक्ति से सद्ज्ञान- दिव्य गुण अलग करके देखा जाय तो वह कदापि श्रद्धेय, पूज्य और माननीय न रह जायगा। इससे यह सिद्ध होता है कि आकृति-व्यक्ति पूज्य, सेव्य और उपास्य नहीं है; उसमें दैवी गुण तथा ज्ञान की पूर्णता ही उपास्य, सेव्य और पूज्य है। दैवी गुण–पूर्ण ज्ञान अथवा निष्काम प्रेम की उपासना-आराधना ही वास्तविक गुरु की उपासना आराधना है।

जब लघु का आश्रय लेकर- लघु पर निर्भर रहकर मानव स्थिर सुख तथा शान्ति नहीं प्राप्त कर पाता है और उसके परिवर्तन तथा विनाश को देख कर अनेक बार वियोग, हानि और अपमान से दुखी हो लेता है, तब किसी गुरु की शरण में जाता है। अपने आप में ज्ञान की कमी से दुखी होकर ज्ञान की पूर्णता के लिये

संशयरहित होकर तथा अभिमान का त्याग कर गुरु के आगे रख देना ही गुरु-शरण है। लघु से गुरु होने के लिये ही गुरुशरण की आवश्यकता है। गुरुका प्रेमी लघु का मोही नहीं रह जाता, गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला छोटी-छोटी बातों के पीछे हर्ष और शोक । नहीं करता है। सांसारिक पदार्थ और सुखोपभोग की वस्तु की माँग लघु-आज्ञा है; तप, त्याग, प्रेम  आदि दैवीगुणकी पूर्णता और दोष के नाश की माँग गुरु आज्ञा है।

जो ज्ञानस्वरूप गुरुकी आज्ञा पालन करते हुए अपने बनाये दोषोंका नाश करता है तथा सद्गुणों से जीवन सुसज्जित करता है और गुणोंको भगवद्गत जानता है, वह गुरुमुख है- गुरुका उपासक है। इसके विपरीत गुरु-ज्ञानका अभिमानी होकर गुरुकी दयाका उपयोग अपने मनकी रुचि-पूर्तिमें करनेवाला मनमुख है। गुरुमुख मानव सत्यका योगी होकर परम शान्ति पाता है, मनमुख मानव सांसारिक सुखोंका भोगी होकर अन्तमें अशान्त और दुखी होता है।

ज्ञानस्वरूप गुरुका कभी नाश नहीं होता है। जिन नाम-रूपमें ज्ञानस्वरूप गुरुतत्त्वका दर्शन हो, उन्हींके निकट बैठकर व्यक्तित्वकी नहीं, गुरुतत्त्वकी उपासना करनी चाहिये। इस प्रकार गुरुकी उपासना करनेवाला शोक, मोह और दुःखके बन्धनसे मुक्त होकर स्वयं गुरु हो जाता है। गुरुके व्यक्तित्वका उपासक संसारमें बद्ध रहता है। श्रद्धायुक्त शुद्ध बुद्धिसे गुरुका दर्शन होता है। श्रद्धायुक्त विवेकसे गुरुप्रदत्त सम्पत्तिका ग्रहण होता है। श्रद्धायुक्त प्रीतिसे गुरु सम्पत्तिकी रक्षा होती है। श्रद्धायुक्त त्यागसे गुरुके प्रति प्रगाढ़ प्रीति होती है और श्रद्धायुक्त तप-संयमसे गुरुके पथमें प्रगति होती है। गुरुमन्त्र परमानन्द परमात्मासे संयुक्त करता है। गुरुभक्ति लघुताकी सीमासे–बन्धनसे मुक्त कर देती है।

 

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