Published By:बजरंग लाल शर्मा

दृष्टा आत्मा एवं मायावी मन....    

दृष्टा आत्मा एवं मायावी मन....    

"चींटी  हस्ती  को  बैठी  निगल, ताकि  काहू  ना  पड़ी  कल ।        

सनकादिक  ब्रह्मा  को  कहे, जीव  मन  दोऊँ  भेले रहे ।।"     

चींटी हाथी को निगल गई, इस रहस्य की जानकारी किसी को नहीं मिली । ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादिक ऋषियों (सनक, सनंदन, सनातन तथा सनत कुमार) ने अपने पिता ब्रह्मा जी से बड़ी गहरी बात पूछी। क्या इस संसार में जीव (आत्मा) और मन एक साथ रहते हैं ।

यहां वाणी में दो तरह के जीव के विषय में उल्लेख किया गया है । एक जीव तो वह है जिनका शरीर माया का है तथा स्वप्न में बना है । जिसे यहाँ मन कहा गया है । दूसरा जीव वह है जो दृष्टा के रूप में इस स्वप्निक संसार को देखने के लिए परमधाम से आया है । इस जीव को यहाँ आत्मा कहा गया है ।

"ए  भेल   हुए   हैं  आद, के भेले  हैं  सदा अनाद ।         

कहे  ब्रह्मा  भेले  नाहीं  तित, ए  आए  मिले  हैं  इत ।।"    

ये दोनों कुछ समय से (इस जगत) में इकट्ठे हुए हैं या अनादि भूमिका में भी एक साथ रहते हैं ? ब्रह्मा जी ने कहा , अनादि भूमिका में ये एक साथ नहीं थे, इसी नश्वर जगत में आकर परस्पर मिल गए हैं ।

तब सनकादिक ऋषियों ने इन आत्मा और मन को अलग करने के लिए कहा । तब ब्रह्मा जी को बड़ी चिंता हुई । मन जो एक चींटी के समान है, कैसे हाथी के समान विशाल आत्मा को अपने बंधन में ले आया ? इनको किस प्रकार अलग किया जाए ।

तब ब्रह्मा जी ने विष्णु जी से निवेदन किया । विष्णु जी हंस बनकर ऋषियों के पास आए और उनके ऊपर से माया का पर्दा हटाकर ऋषियों के माया रूपी मन को आत्मा से अलग कर दिया । फिर उन्होंने जाना कि यह हंस नहीं हैं, ये तो विष्णु भगवान हैं, तब उन्होंने उनको प्रणाम किया।

कुछ देर के बाद ही माया का परदा पुन: डालने पर वे विष्णु भगवान को नहीं पहचान पाए और पूछा कि आप कौन हो ? तब हंस स्वरूप विष्णु भगवान ने इसके उत्तर में उनको मन और आत्मा की भिन्नता बता दी ।

परन्तु वे आत्मा और मन को अलग-अलग नहीं कर सके । क्योंकि इन दोनों  के उद्गम स्थान ही अलग-अलग है ।  

महामति प्राणनाथ जी कहते हैं कि इस मायावी मन का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है, इससे बड़ा तो आक के फूल का एक रेसा ही होता है । इस रेसे का करोड़ वा भाग होना भी संभव है, किंतु मन का अस्तित्व तो उतना भी नहीं है ।

यह मायावी मन तो दृश्य है तथा दृष्टा आत्मा परमधाम की अपने पूर्ण ब्रह्म  परमात्मा की अंगना है । दृष्टा आत्मा सूर्य है और मायावी मन सूर्य के सामने अंधकार पूर्ण रात्रि है । इन दोनों में कोई समानता नहीं है 

बजरंग लाल शर्मा

            


 

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