जब तक जिज्ञासु को जड़ चेतन की भिन्नता का ज्ञान नहीं होता है, तब तक उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है । जड़ एवं चेतन की पृथक पृथक सत्ता है, दोनों ही अनादि हैं तथा पहले एक साथ नहीं थे।
"अभिलाष गुरुदेव का, भुलू नहीं उपकार ।
जड़ चेतन की गांठ का, खोल किया निरवार ।"
" जड़ चेतन दोउ मिले भय तीसरा जीव "
" जड़ चेतन दो मूल है, पुरुष प्रकृति जान ।
नहीं आदि और अंत है, दोनो अनादि मान ।।"
अकेला शरीर तो जड़ प्रकृति है बिना चेतन के किसी भी प्रकार की कोई क्रिया नहीं कर सकता है, निष्क्रिय रहता है ।
अकेला चेतन भी बिना शरीर के अर्थात बिना इंद्रिय रूपी जड़ प्रकृति के, समर्थ होते हुए भी कोई क्रिया नहीं कर सकता है ।
"चेतन को इच्छा नहीं, जड़ से कछु न होय ।
पता करो जगत कैसे रचा, ए अचरज आवे मोय ।"
दृश्य जगत जो दिखाई देता है, उसमें भी चेतन की सत्ता है । चेतन की सत्ता के बिना कुछ भी दिखाई नहीं देता है, परंतु यह दृश्य जगत जीव नहीं है चल (जीव) तथा विचल (दृश्य जगत) दोनों में ही चेतन की सत्ता है ।
जीव संख्या में अनंत हैं इनमें चेतन तथा जड़ दोनो की सत्ता है । इन दोनों की मूल सत्ता पृथक पृथक है । यह जीव ना अकेले चेतन से बना है तथा ना अकेले जड़ प्रकृति से बना है ।
सभी जीवो में चेतन की सत्ता तो समान रूप में है , परंतु प्रकृति रूप जड़ की सत्ता इनमे सत, रज, तम तीन गुणो के अलग-अलग अनुपात में होती है, अत: सभी जीव समान नहीं होते हैं ।
जड़ प्रकृति जब अपने मूल रूप में रहती है तब उसके तीन गुण सुप्तावस्था में रहते हैं। उस समय उसे मूल प्रकृति कहा जाता है। मूल प्रकृति पहले काल से मिलकर अपने तीन गुण प्रकट करती है।
इस प्रकार जो प्रकृति पहले अनादि थी, रचना करने के लिए आदि बन जाती है । उसके गुण धर्म बदल जाते हैं । चेतन से मिलने के पूर्व यह अपनी आदि अवस्था में आ जाती है ।
अनादि चेतन के गुणधर्म भी आदि ब्रह्म से अलग होते हैं । अनादि चेतन विकार रहित (काल तथा प्रकृति से रहित) होता है, शुद्ध होता है । अनादि चेतन को काल तथा माया से मिलने के लिए पहले आदि ब्रह्म बनना पड़ता है ।
यह आदि ब्रह्म आत्मा नहीं बल्कि आत्मा का आभास (प्रतिबिंबित) होता है । इस प्रकार जीव के साथ, जो चेतन एवं प्रकृति है दोनों ही आदि हैं, अनादि नहीं ।
आदि ब्रह्म तथा आदि माया दोनो ही असत्य होते हैं क्योंकि असत्य ही असत्य से मिल सकता है । असत्य से बनने वाला भी असत्य ही होता है । अत: जीव असत्य है । सत्य का गुणधर्म है कि वह सदा एक समान रहता है उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है परंतु जीव की अवस्था एवं शरीर बदलता रहता है, कभी एक समान नहीं रहता है ।
अभिलाष गुरुदेव साहेब के अनुसार जब जीव अपना विकार युक्त शरीर छोड़ कर शुद्ध चेतन बन जाता है तब वह आत्मा बन जाता है ।
बजरंग लाल शर्मा
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