 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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जैसा लिखा जाता है, वैसा ही पढ़ा जाता है, इसी का नाम वैज्ञानिकता है।
'अक्षरं ब्रह्म परं' से तात्पर्य अक्षर की परम सत्ता कों स्वीकारना है। वैसे तो अक्षर का अर्थ ही है कि जिसका क्षर न हो; जो कभी भी नष्ट न हो। अक्षर स्वीकार - कर्म में कोई रहस्य मिले या न मिले, पर इन अक्षरों में स्वयं वैदिक दर्शन का रहस्य स्थायी रूप से निहित है।
संसार की कोई भी लिपि इस परम वैज्ञानिक ब्राह्मी - वर्ण - समाम्नाय की किसी प्रकार की तुलना या प्रतिद्वंदिता के लिए खड़ी नहीं हो सकती। अन्य लिपियों में लिखा कुछ जाता है और उसे पढ़ा कुछ अन्य दंग से जाता है; जिसका हमारी इस ब्राह्मी लिपि में नितांत अभाव है। इसमें जैसा लिखा जाता है, वैसा ही पढ़ा जाता है, इसी का नाम वैज्ञानिकता है।
यह लिपि वैज्ञानिक ही नहीं, अपितु दार्शनिक है। हमारे यहाँ 'अक्षर' नाम स्वयं परम का --"कूटस्थोक्षर उच्च्यते"(गीता) तथा "ब्रह्माक्षर समुद्भवम"। इस अक्षर या परम ब्रह्म का विकास जिन-जिन सीढ़ियों मरण होकर उत्तरोत्तर चलता है, उन सीढ़ियों का नाम भी अक्षर ही है।
प्रत्येक सीढ़ी एक-एक अक्षर है। परम ब्रह्म विकास के मुख्य दो भाग हैं - पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध। इनमें से पूर्वार्द्ध में 16 स्वर एवं 8 उष्माण आते हैं; उत्तरार्द्ध में 5 व्यंजन-वर्गों के 25 अक्षर आते हैं।
मध्यवर्ती 25 वां सुट्या, आदित्य, सविता, सोम, विष्णु आदि नामों से अभिहित होता है। यहाँ सारे अक्षरों का अ+उ+म रूप में समाहार है और तभी इसे ॐ कहते हैं। इस प्रकार हमारे वर्ण-समाम्नाय में वैदिक दर्शन का पूर्ण ढांचा सदा के लिए सुरक्षित करके रखा गया है। इस लिपि का नाम ही इसलिए ब्राह्मी या ब्रह्म-विकास सम्बन्धी और वर्ण-समाम्नाय या वेदरूप वर्णावली दिया गया है।
अक्षर स्वीकार कर्म से ही ब्रह्म स्वीकार कर्म चलाने की प्रथा कितनी दूरदर्शिता पूर्ण है और इसे समझने वाले ही समझ सकते हैं। इसलिए इस कर्म का सर्वश्रेष्ठ महत्व है। इस वर्ण-समाम्नाय का एक और नाम अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में 'ॐ नम: सिद्धं' भी है। इसलिए वर्णों का उच्चारण करते समय इस नाम का भी उच्चारण करते हैं।
इस वर्ण-समाम्नाय के 50 अक्षरों की संख्या के 50 विद्या-प्रवर्तक गणेश आदिकों का स्थापन, पूजन, आवाहन आदि करते हैं। इन्हीं के नाम से हवन आदि भी प्रयाश्चित्तीय देवताओं के साथ-साथ करते हैं। इस अग्नि का नाम पुष्टवर्धन है। विद्यालंकार कहते हैं गुरु सरस्वती की वंदना करके अक्षर-स्वीकार और विद्यारम्भ का कर्म प्रारंभ करते हैं।
 
 
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