पहली लगन से दूसरी चन्द्र लग्न या राशि से और तीसरी सूर्य लग्न से, उत्तर भारत में चन्द्र लग्न से शनि की साढ़े साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.
इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि से पूर्व राशि में गोचर वश प्रवेश करते हैं तो साढ़ेसाती आरंभ हो जाती है, लगभग अढ़ाई वर्ष इस राशि में अगले अढ़ाई वर्ष जन्म राशि में और अंतिम अढ़ाई वर्ष जन्म राशि से अगली राशि में, शनि का कुल गोचर काल साढ़े सात वर्ष होता है जिस कारण से इस अवधि को शनि की साढ़ेसाती कहा जाता है |
जन्म राशि से जब शनि चतुर्थ या अष्टम राशि में रहता है तो शनि का ढैया कहा जाता है |
जन्म कुंडली में शनि बलवान, शुभ भावों का स्वामी शुभ युक्त व शुभ दृष्ट होकर शुभ फलदायक सिद्ध होता हो तो शनि की साढ़ेसाती या ढैया में अशुभ फल नहीं मिलता बल्कि उसका भाग्य उत्थान व उत्कर्ष होता है |
शनि के अष्टक वर्ग में यदि साढ़ेसाती या ढैया की राशि में चार या अधिक शुभ बिंदु प्राप्त हों तो भी शनि अशुभ फल नहीं देता |
यदि जन्मकालीन शनि निर्बल, अशुभ भावों का स्वामी, मारकेश, पाप युक्त या दृष्ट,अशुभ भावों में स्थित होने के कारण अशुभ कारक हो, व अष्टक वर्ग में उस राशि में चार से कम शुभ बिंदु हों तो शनि की साढ़ेसाती या ढैया में चिंता, रोग व शत्रु से कष्ट,अवनति,आर्थिक हानि, परिवार में मतभेद, स्त्री व संतान को कष्ट, कार्यों में विघ्न, कलह, अशांति होती है |
मेष, कर्क, सिंह, कन्या, वृश्चिक, मकर मीन राशि को मध्य के अढ़ाई वर्ष, वृष, सिंह, कन्या, धनु, मकर, कुंभ, मीन के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष तथा मिथुन, तुला, वृश्चिक, कुम्भ, व मीन के अंतिम अढ़ाई वर्ष साढेसाती में अधिक अशुभ फलदायक होते हैं |
शनि का पाया या चरण—–
वास्तुशास्त्री एवं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार शनि के गोचर का शुभाशुभ फल निश्चित करने के लिए शनि के पाए या चरण का विचार भी किया जाता है |
जिस राशि में शनि हो वह यदि जन्म या नाम राशि से 3, 7,10 वें स्थान पर हो तो सर्वश्रेष्ठ तांबे का पाया, 2-5-9 वें स्थान पर हो तो श्रेष्ठ चांदी का पाया,1-6-11 वें स्थान पर हो तो मध्यम सोने का पाया तथा 4-8-12 वें स्थान पर हो तो अशुभ फलदायक लोहे का पाया होता है |
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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