षट्चक्र, यह शब्द संस्कृत में 'षट' और 'चक्र' का मेल है, जिसका अर्थ है 'छह चक्र'। ये चक्र मानव शरीर के अंदर सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से प्रवाहित होने वाली ऊर्जा के केंद्र हैं, जो आत्मा की उच्च शक्तियों को जागरूक करने में मदद करते हैं।
मूलाधार चक्र-
स्थान: योनि (गुदा के समीप)।
वर्ण: लाल।
तत्व: पृथ्वी।
देव: गंधर्व ब्रह्मा।
ध्यान का फल: मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्या विनोदी, आरोग्य, आनन्द चित्त काव्य और लेखन की सामर्थ्य।
स्वाधिष्ठान चक्र-
स्थान: पेडू (शिश्न के सामने)।
वर्ण: सिन्दूर।
तत्व: जल।
देव: विष्णु।
ध्यान का पल: अहंकारादि विकारों का नाश, मोह निवृत्ति, रचना शक्ति।
मणिपुर चक्र-
स्थान: नाभि।
वर्ण: नील।
तत्व: अग्नि।
देव: वृद्ध रुद्र।
ध्यान का फल: संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।
अनाहत चक्र-
स्थान: हृदय।
वर्ण: अरुण।
तत्व: वायु।
देव: ईश रुद्र।
ध्यान का फल: भक्ति, अमरता, समाधि, इंद्रिय जय, परकाया प्रवेश।
विशुद्धार चक्र-
स्थान: कंठ।
वर्ण: धून।
तत्व: आकाश।
देव: पंचमुखी सदाशिव।
ध्यान का फल: चित्त शान्ति, तेजस्विता, सर्वहित परायणता।
आज्ञाचक्र-
स्थान: धूमध्य।
वर्ण: श्वेत।
तत्व: महतत्व।
देव: ज्योतिर्लिंग।
ध्यान फल: सर्वार्थ साधन।
षट्चक्रों का शिक्षान्तर (षड्विध योग):
योग शिक्षा में, षट्चक्रों को जागरूक करने के लिए षड्विध योगों का अध्ययन किया जाता है। ये हैं: हठयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, मन्त्र योग और कुण्डलिनी योग।
षड्विध योगों का महत्वपूर्ण सिद्धांत:
योग शिक्षा के अनुसार, योगी अपने मन, शरीर, और आत्मा को एकीकृत करके अनंत आत्मा का अनुभव करता है। यह आत्मा की उच्च शक्तियों के साथ मिलन का मार्ग होता है और साधक को आत्मा से मिलन का अनुभव होता है।
योग के माध्यम से षट्चक्रों का वेधन करने वाले साधकों को अपनी आत्मा की ऊँचाइयों का अद्भुत अनुभव होता है और वे अद्वितीयता की स्थिति में पहुंचते हैं। इस यात्रा में साधक अपनी अंतर्दृष्टि को जागरूक करता है और आत्मा के साथ एक होता है।
चेतना की ऊँचाइयों का साक्षात्कार करने का यह यात्रा एक अद्वितीय और रोमांचक अनुभव हो सकता है।'
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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