षट्खंडागम की रचना-
आचार्य पुष्पदंत-भूतवली – गुणधराचार्य के पश्चात अंग-पूर्वों के एक देश ज्ञाता धरसेन हुए। ये सौराष्ट्र देश गिरिनार के समीप उर्जयन्त पर्वत की चन्द्रगुफा में निवास करते थे। ये परवादी रूप हाथियों के समूह का मदनाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंह के समान थे। अष्टांग महानिमित्त के पारगामी और लिपि शास्त्र के ज्ञाता थे।
वर्तमान में उपलब्ध श्रुत की रक्षा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। कहा जाता है कि प्रवचन-वत्सल धरसेनाचार्य ने अंग श्रुत के विच्छेदन हो जाने के भय से महिमा नगरी में सम्मिलित दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक पत्र भेजा।
पत्र में लिखे गए धरसेन के आदेश को स्वीकार कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ विविध प्रकार के चरित्र से उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित शील रूपी माता के धारी सेवा भावी देश कुल जाति से शुद्ध, समस्त कलाओं के प्रगामी एवं आज्ञाकारी दो साधुओं को आंध्र देश की वन्या नदी के तट से रवाना किया।
इन दोनों मुनियों के मार्ग में आते समय धरसेनाचार्य ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में कुन्द पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के दो बैलों के अपने चरणों में प्रणाम करते देखा। प्रातः काल उक्त दोनों साधुओं के आने पर धरसेनाचार्य ने उन दोनों की परीक्षा ली और जब आचार्य को उनकी योग्यता पर विश्वास हो गया तब उन्होंने अपना श्रुतोपदेश देना प्रारंभ किया। जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ।
गुरु धरसेन ने इन दोनों शिष्यों का नाम पुष्पदन्त और भूतबली रखा। गुरु के आदेश से ये शिष्य गिरनार से चलकर अंकलेश्वर आये और वहीं उन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया। अनन्तर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देश को और भूतबली तमिल देश की ओर चले गए।
पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर उसके अध्यापन हेतु सत् प्ररूपणा तक के सूत्रों की रचना की और उन्होंने उन सूत्रों को संशोधनार्थ भूतबली के पास भेज दिया। भूतबलि ने जिन पालित के पास उन सूत्रों को देखकर पुष्पदंत आचार्य को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति पाहुड का विच्छेदन ना हो जाये इस ध्येय से आगे द्रव्यप्रमाणादि आगम की रचना की।
इन दोनों आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ षट्खण्डागम कहलाता है। इस ग्रन्थ की सत्य प्ररूपणा के 177 सूत्र पुष्पदन्त ने और शेष समस्त सूत्र भूतवली के द्वारा रचित हैं अतएव यह स्पष्ट है कि श्रुत व्याख्याता धरसेन हैं और रचयिता पुष्पदन्त तथा भूतबलि।
इन आचार्यों के समय के सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो ज्ञात नहीं है पर इन्द्र-नंदी कृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के पश्चात विनय दत्त, श्री दत्त, शिवदत्त और अर्ह दत्त इन चार भारतीय आचार्यों का उल्लेख मिलता है और तत्पश्चात् अर्हाद् बलि का तथा अर्हद्बलि के अनन्तर धरसेनाचार्य का नाम आता है।
इन्द्र नन्दी के अनुसार कुन्दकुन्द षट्खण्डागम के टीकाकार हैं। अतः पुष्पदन्त और भूतबलि का समय कुन्दकुन्द के पूर्व है। विद्वानों ने अनेक पुष्ट प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि षट्खण्डागम की रचना प्रथम शती में होनी चाहिए।
षट्खण्डागम (छक्खंडागम) सूत्र – इस आगम ग्रन्थ में छह खण्ड हैं- जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वंदना, वग्गणा, और महाबन्ध। इस ग्रन्थ का विषय स्तोत्र बारहवें दृष्टिवाद श्रुतांग के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व आग्रायणीय के चयनलब्धि नामक पञ्चम अधिकार के चतुर्थ पाहुड़ कर्म प्रकृति को माना जाता है।
षट्खण्डागम जैनागम का एक महान ग्रन्थ है। इसमें कर्म सिद्धांत को विभिन्न दृष्टि से समझाने का श्लाघनीय प्रयास किया गया है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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