 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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भगवान शंकर समस्त विद्याओं वेद शास्त्रों आगमों तथा कलाओं के मूल स्रोत हैं। इसलिए उन्हें विशुद्ध विज्ञानमय, विद्यापति, विद्यातीर्थ तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर कहा गया है।
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल एवं अमंगलों का उन्मूलक है। दिग्वसन होते हुए भी शिवजी भक्तों को अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, अनंत राशियों के अधिपति होते हुए भी भस्म विभूषण, श्मशान वासी कहे जाने पर भी तीनों लोकों के अधिपति, योगिराज होते हुए भी अर्धनारीश्वर, सदा कांता से समन्वित होते हुए भी मदनजित, अज होते हुए भी अनेक रूपों में आविर्भूत, गुणहीन होते हुए भी गुणाध्यक्ष, अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त तथा सबके कारण होते हुए भी अकारण हैं।
भगवान शिव सबके पिता हैं और भगवती पार्वती जगजननी। शिवजी की दानी और उदार छवि ऐसी है कि उनका नाम ही अवढरदानी पड़ गया है। उनका भोलापन भी तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। अकारण अनुग्रह करना, अपनी संतान से प्रेम करना शिवजी का स्वभाव है। उनके समान कल्याणकारी एवं प्रजारक्षक और कोई नहीं है।
समुद्र मंथन से कालकूट विष निकला, जिसकी ज्वाला से तीनों लोकों में हा हाहाकार होने लगा। किसी में यह सामर्थ्य नहीं था कि वह कालकूट विष का शमन कर सके। प्रजा की रक्षा का दायित्व प्रजापति गणों का था, पर वे भी जब असमर्थ हो गए, तो सभी शंकर जी के शरण में गए और अपना दुख सुनाया।
भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा कि ये निरीह प्राणी बहुत व्याकुल हैं। प्राण बचाने की इच्छा से मेरे पास आए हैं। मेरा कर्तव्य है कि मैं इन्हें अभय करूं, क्योंकि जो समर्थ हैं, उनकी सामर्थ्य का उद्देश्य ही यह है कि वे दीनों का पालन करें।
साधुजन, नीतिवान जन अपने नश्वर जीवन की बलि देकर भी प्राणियों की रक्षा करते हैं। जो पुरुष प्राणियों पर कृपा करता है, उससे श्री हरि प्रसन्न रहते हैं और जिस पर श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं, उससे मैं तथा समस्त जगत भी प्रसन्न हो जाता है।
भगवान शिव ने अपनी चर्या से जीव को स्वल्प भी परिग्रह न करने, ऐश्वर्य एवं वैभव से विरक्त रहने, संतोष, संयम, साधुता, सादगी, सच्चाई, परहित-चिंतन, अपने कर्तव्य के पालन तथा सतत नाम जप-परायण रहने का पाठ पढ़ाया है।
अपने प्राणों की बलि देकर भी जीवों की रक्षा करना, सदा उनके हित-चिंतन में संलग्न रहना इससे बड़ा कोई आदर्श नहीं हो सकता। कृपालु शिव ने प्रजा के हित का ध्यान करते हुए उस विष को पी लिया और नीलकंठ कहलाए। तीनों लोकों की रक्षा हो गई।
शिव जैसे आदर्श के स्वल्प का भी यदि पालन हो जाए, तो सर्वत्र सुख- शांति का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा।
भगवान शिव का परिवार भी विलक्षण है। एक पुत्र गजमुख हैं, तो दूसरे षडानन। एक का वाहन मूषक है, तो दूसरे का मोर। देवी पार्वती का वाहन सिंह है, तो स्वयं शिवजी वृषभ पर सवार रहते हैं। वेष भी दिगम्बर है, पर साथ में अन्नपूर्णा पार्वती है, तो कल्याण ही कल्याण है।
भक्तों ने भी शिवजी को अपने मन में विभिन्न रूपों में स्थान दिया है। शिवजी के विवाह के अवसर पर जो प्रश्न उनसे किए गए और उन्होंने जो उत्तर दिए उसका एक सहज, किंतु विराट चित्रण एक भक्त द्वारा इस प्रकार किया गया है-
प्रश्न: आपके पिता कौन हैं?
उत्तर : ब्रह्मा।
प्रश्न : बाबा कौन हैं?
उत्तर : विष्णु।
प्रश्न : परबाबा कौन हैं?
उत्तर : सो तो सबके हम ही हैं।
शिवजी के उत्तर कहीं से भी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है, क्योंकि सभी के परम पिता भगवान शिव ही हैं, जिनकी महिमा अनन्त है। उनकी महिमा का सर्वथा लेखन अथवा बखान सरल नहीं है।
शिवजी का रौद्र रूप तथा अमंगल वेष भी कल्याणकारी ही है। भक्तों को वे अघोर अर्थात सौम्य रूप में दर्शन देते हैं तथा नीति और धर्म के शत्रुओं अर्थात आसुरी स्वभाव वालों के लिए वे घोर रूप धारण करते हैं।
 
 
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