 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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(लेखक - डॉ. श्री सुरेश चंद्र जी सेठ)
उत्तरी भारत के छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े जिस किसी नगर में जाने का अवसर प्राप्त हुआ है, वहाँ कहीं-न-कहीं श्री हनुमानजी का मंदिर अवश्य दृष्टिगोचर हुआ है। स्थान-स्थान पर साधकों को 'हनुमान चालीसा' का बड़ी ही श्रद्धा से पाठ करते भी देखा गया है।
राजस्थान में ही सालासर जैसे कुछ सिद्ध स्थान भी देखने को मिले हैं, जहाँ के दर्शनार्थियों का यह पूरा विश्वास है कि श्री हनुमानजी के समक्ष शुद्ध मन से जो भी मनौती की जाएगी, वह अवश्य पूरी होगी। साधक श्री हनुमानजी को ऐसा श्री राम-भक्त मानते हैं, जिनके पास अतुलित बल है और जो साधकों की प्रार्थना को स्वीकार कर उन्हें संकट से बचा देते हैं।
पिछले दिनों एक संत मेरे घर पर पधारे थे। मेरे कक्ष के एक कोने में श्री बजरंगबली की बड़ी ही आकर्षक प्रतिमा को देखकर वे पूछने लगे- 'क्या तुम्हारे आराध्य हनुमान हैं?' मैंने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- "मैं तो उस अव्यक्त को ही अपना आराध्य मानता हूँ फिर भी यदि मुझे नाम 'राम' का प्रिय लगता है तो रूप 'कृष्ण' का।
श्री हनुमान जी महाराज के प्रति मेरा विश्वास बहुत है; क्योंकि 'रामदुआरे के यही रखवारे' हैं। और इनकी आज्ञा के बिना प्रभु के दरबार में प्रवेश नहीं हो सकता।" यह सुनकर उन्होंने इतना ही कहा- "बिलकुल ठीक है, प्रभु-विश्वास ही 'हनुमानजी' हैं।"
मैं सोचने लगा कि यह क्या बात हुई। कुछ समय के पश्चात इस कथन का रहस्य मेरे सामने स्पष्ट हो गया। पूज्य स्वामी शरणानन्दजी महाराज कहा करते हैं कि प्रत्येक साधक के जीवन में आस्था का तत्व विद्यमान है। दूसरी ओर उसे विचार-शक्ति एवं क्रिया-शक्ति प्राप्त है। इस आस्था के तत्त्व को ही वे विश्वास-मार्ग में प्रधानता देते हैं।
प्रभु-विश्वासी हुए बिना साधक की साधना सफल नहीं होती और प्रभु-विश्वास ही साधक को प्रभु-प्रेमी बना देता है। वैसे पूज्य स्वामी जी अपने प्रवचन में प्रभु के किसी विशेष रूप या विशेष नाम को अपनाने की चर्चा नहीं करते, किंतु एक दिन अनायास उन्होंने एक साधक से यह कहा- 'प्रभु-प्रेम-प्राप्ति हेतु तुम हनुमानजी को अपना इष्ट बना लो।' संतों के उपदेश की शैली बड़ी ही निराली होती है। वे भिन्न-भिन्न साधकों को एक कुशल वैद्य के समान भिन्न-भिन्न पथ और पथ्य बता देते हैं, किंतु प्रभु-प्रेम की बात अंत में ही करते हैं।
पूज्य श्री स्वामीजीके इस संकेत से हनुमान जी के प्रति मेरी आस्था और दृढ़ हो गयी है। अब मुझे ऐसा लगता है कि प्रभु-विश्वास के प्रतीक सचमुच हमारे श्री हनुमान जी महाराज हैं। जिस व्यक्ति की हनुमान जी में आस्था हो जाती है, उसका प्रभु-विश्वास बढ़ने लगता है और विश्वास का तत्त्व ही साधक को विविध धाराओं से निकालता हुआ प्रभु-प्रेम पाने का अधिकारी बना देता है।
इसलिए 'राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥' कहा जाता है। जिसका प्रभु में विश्वास ही नहीं होगा, वह उनके साम्राज्य में कैसे प्रवेश पा सकता है? ईश्वर विश्वास की बुद्धि स्वतः निर्मल होने लगती है। विश्वासी साधक हनुमान जी महाराज की कृपा से उनके ही समान 'ज्ञान-गुन-सागर' बन जाता है।
श्री बजरंगबली के कुमति का निवारण करने वाला, महातेजस्वी, प्रतापी और 'राम काज करिबे को आतुर ॥' बताया गया है। मेरा विश्वास है कि जिस साधक पर हनुमान जी कृपा कर देते हैं, वह भी प्रभु का ही कार्य करने लगता है। फिर तो उसे भी हनुमान जी के समान प्रभु-चरित्र सुनना और सुनाना ही सुहाता है।
हनुमान जी साधक की बुद्धि को विवेकवती बनाकर उसे संसार सागर को पार करने की सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। उनकी कृपा से साधक को वास्तविक सुख तथा आनन्द प्राप्त हो जाते हैं।
वास्तव में ईश्वर-विश्वासी को 'हनुमान चालीसा' की एक-एक पंक्ति की सत्यता का अनुभव होने लगता है। उसका विश्वास उसे अष्ट सिद्धियों तथा नवों निधियों को दिलाने में समर्थ है। उसके लिये श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन उदाहरण है, जिन्हें मातृ-विश्वास के बल पर सब कुछ प्राप्त था।
ईश्वर विश्वास ही वह 'राम रसायन' है, जिसे साधक हनुमान जी से माँग सकता है। व्यक्ति के जन्म के दुःखों को दूर करने में, साधक को पूर्ण प्रभु-विश्वासी बनाने में और अंत काल में रघुपुर में श्री राम से मिलाने में श्री हनुमान जी पूर्ण समर्थ हैं। श्री हनुमान जी विश्वास के प्रतीक हैं और प्रभु-विश्वासी साधक के प्रभु-विश्वास को पुष्ट करने के लिये हनुमदुपासना आवश्यक है।
 
 
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