Published By:अतुल विनोद

साधना के चार स्तर हैं शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण ?.... अतुल विनोद

Shudra, Vaishya, Kshatriya and Brahmin are the four levels of cultivation गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो शिक्षा दी है वो साधना से योगस्थ होने की शिक्षा है|  साधक संजीवनी में स्वामी रामसुख दास और यथार्थ गीता में स्वामी अरगड़ानंद ने इस पर बहुत अच्छी व्याख्या की है|  श्री कृष्ण योगेश्वर हैं और उनकी गीता आंतरिक स्तर को शूद्र से द्विज यानि ब्राम्हण बनाने की है|  यहाँ शुद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण जाति नही साधना के स्तर हैं| जब साधक में आत्मज्ञान की जिज्ञासा पैदा होती है तब वो शूद्र होता है|

 इस समय गुरु को साधक के ताड़ते रहना चाहिए यानि निरिक्षण करते रहना चाहिये| तुलसीदास ने ढोल, गंवार, शूद्र,पशु,नारी को ताड़ना यानी देखरेख का अधिकारी बताया है|   यहाँ तुलसीदास जी भी साधना की ही बात कर रहे हैं| शुरुआत में साधक ढोल की तरह आत्मज्ञान से खाली होता है| वो थोथे ज्ञान का बाजा बजाता रहता है| एक तरह से उसकी स्थिति गंवार सी होती है| गंवार को यदि ताडा नहीं जाए तो वो उलटा सीधा कर बैठता है| वो इस समय शूद्र यानी बच्चे की भी तरह होता है| शूद्र को बालपन की अवस्था भी कही गयी है|

 अल्पज्ञ खाली घड़े की तरह, निर्मल … इसलिए इस अवस्था में साधक की ताड़ना की ज़रूरत है|  नारी को भी ताड़ना की ज़रूरत है क्यों? यहाँ नारी शक्ति का प्रतीक है|  जैसे नारी को समाज की बुरी नज़रों से बचने के लिए सुरक्षा, देखरेख या ताड़ना की ज़रूरत है वैसे ही साधक की नारी रूपी कुण्डलिनी शक्ति को गुरु के निरिक्षण की ज़रूरत है|  बिना गुरु तत्व के जागृत, कुण्डलिनी शक्ति से साधक मदमस्त हो सकता है| वो शक्ति का दुरूपयोग कर सकता है| उस पर अपना बेजा अधिकार समझ समय से पहले ही साधना छोड़ सकता है| 

इस अवस्था में ताड़ना की ज़रूरत पडती है|  शुरुआत में साधक की अवस्था शूद्र की तरह होती है| महापुरुषों/ सदगुरुओं के सतत प्रशिक्षण या अंतर में गुरु शक्ति के निर्देशन से वो वैश्य रूप में पहुचता है| इस अवस्था में उसके पास साधना से प्राप्त आध्यात्मिक सम्पदाएँ आने लगती हैं|  एक तरफ आध्यात्मिक शक्तियां विवेक, धर्म, सत्य, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार मिलते हैं| दूसरी तरफ काम, क्रोध, मोह, लोभ,हिंसा भी मौजूद रहते हैं| यहाँ वो “सबीज” होता है| “सविकल्प” साधना में आगे बढ़ते हुए साधक “क्षत्रिय” बन जाता है और अपने आत्मबल से वो वृत्तियों का वध कर देता है|

 अन्दर युद्ध होता है| क्षत्रिय रूप में साधक असुरों का नाश कर देता है| अर्जुन के तरह उसे अंदर की वृत्तियाँ अपने रिश्ते-नातेदार की तरह दिखाई देती हैं| योगेश्वर कृष्ण के रूप में गुरु तत्व उसकी मदद करता है| गुरु तत्व उसे इन वृत्तियों के मोह में न पड़ इनके नाश के लिए प्रेरित करता है| तब वो विजयी होकर ब्राम्हण बन जाता है| यहाँ उसके अंदर शांति, सहजता, शुद्ध ज्ञान, बोध, प्रज्ञा का उदय होता है|  साधक आगे चलकर “ब्राम्हण” अवस्था को भी पार कर लेता है और “ब्रम्ह” भाव में स्थित हो जाता है| इसे ही योगस्थ अवस्था कहते हैं|

 

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