श्रीमद्भगवद्गीता में सिद्ध योग का ही वर्णन है। सिद्ध योग, योगों का योग है, जो श्री गुरु भगवान की कृपा से मनुष्य के जीवन में स्वयं घटित होता है।
जब जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य के क्रम के बाद आत्मा परिपक्व अवस्था में आ जाती है तब भगवान ही गुरु बनकर उसे जन्म मरण से मुक्ति प्रदान करने के लिए सिद्ध योग शक्तिपात विद्या का अंतर में ज्ञान स्थापित करते हैं और वही अंतर्ज्ञान उसके जीवन में घटित होने लगता है।
उसी अंतर्ज्ञान से उसे क्रियाएं होती हैं और गीता में वर्णित योग होते हुए उसे परम योग होता है। इस परम योग की अवस्था में वह शक्ति और शिव के मिलन से पूर्ण हो जाता है। इस सिद्धयोग का वर्णन भगवान श्री कृष्ण ने गीता में किया है।
भगवान श्री कृष्ण के गीता के उपदेश को श्री गुरु सियाग गुरुदेव श्री रामलाल सियाग के चरणारविंदों को प्रणाम करते हुए आज यहां चर्चा में लाने की शुरुआत की जा रही है।
सबसे पहले हम अपने गुरु भगवान के श्री चरण कमल को और समस्त सिद्ध योगियों को नमन करते हैं। समस्त अवतारों को नमन करते हुए श्री गुरुदेव भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें कृपा प्रदान करते रहे और सिद्ध योग के मार्ग में निरंतर बिना किसी बाधा के आगे बढ़ाते रहें।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि गीता का उपनिषद वैदिक ज्ञान का सार है। वैदिक अर्थात वह वेद जो मनुष्य के अंदर ही निहित है। उस वेद को पढ़ने की कला ही सिद्ध योग है और सिद्धयोग के जरिए जब एक साधक अपने अंदर के वेद को पढ़ लेता है तब वह मुक्ति का अधिकारी हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का मर्म योग के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में उद्घाटित होने लगता है। श्रीमद्भगवद्गीता का अनुभवात्मक ज्ञान ही सिद्ध योग है। भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता के चतुर्थ अध्याय में बताते हैं कि किस तरह से श्रीमद्भगवद्गीता की योग पद्धति गुरु परंपराओं से होती हुई एक से दूसरे तक पहुंचती रही।
कालांतर में मनुष्य इस योग पद्धति को स्वयं में उद्घाटित करने में अक्षम हो गया। यानी शक्तिपात से भगवत गीता का उद्घाटन बंद हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में इसे फिर से अर्जुन को मौखिक रूप से सुनाया और वहीं से फिर से सिद्धयोग शक्तिपात परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरे भक्त और मित्र हो इसलिए मैं तुम्हें भगवत गीता का उपदेश दे रहा हूं। ज्ञानी योगी और भक्त, यहां पर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि वह गुरु परंपरा का पहला पात्र अर्जुन को बना रहे हैं, क्योंकि प्राचीन परंपरा खंडित हो गई, अब अर्जुन से यह परंपरा फिर से शुरू होती है, अर्जुन इस सिद्ध योग परंपरा का पहला विद्यार्थी था और उसे रण छेत्र में भगवत गीता का दिव्य ज्ञान मिला।
जब भक्त का भगवान से प्रत्यक्ष संबंध होता है तब सिद्ध योग विद्या का प्रादुर्भाव होता है। और तब जीव भगवान के साथ शाश्वत संबंध स्थापित कर लेता है और इसी को स्वरूप कहते हैं। जब भक्ति योग से ईश्वर का अनुग्रह होता है तब यह स्वरूप जागृत होता है। तब यह स्थिति स्वरूप सिद्धि कहलाती है। स्वरूप की सिद्धि का मतलब है स्वाभाविक या मूलभूत स्थिति की पूर्णता।
क्रमशः अतुल विनोद- 7223027059
प्रसिद्ध संत और धर्मोपदेशक हसन बसरी एक बार संत राब...
January 30, 2023मनुष्य के जीवन में ज्ञान सबसे बड़ी उपलब्धि है सवाल...
January 18, 2023श्रीमद्भगवद्गीता में सिद्ध योग का ही वर्णन है। सिद...
January 16, 2023श्रीमद् भागवत गीता का सिद्ध योग विद्यार्थी के अंतर...
January 16, 2023हिंदू धर्म में अग्नि और हवन का विशेष महत्व है। आइए...
January 11, 2023पूजा के दौरान इन नियमों का ध्यान जरूर रखें, नहीं त...
January 11, 2023जीवात्मा तथा परमात्मा ही ये दो पक्षी हैं, प्रकृति...
January 9, 2023अगर आप उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर जा रहे हैं तो य...
January 6, 2023