Published By:अतुल विनोद

सिद्धयोग और अकर्ता भाव - अतुल विनोद

यह अनुभव में आ जाता है कि वास्तव में करने वाला मैं नहीं हूं। मूल रूप से चिन्मय सत्ता मात्र में न करना है, ना होना है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में जो क्रियाएं होती हैं वो प्रकृति में होती है स्वयं में नहीं होती।  स्वयं का, खुद का किसी भी क्रिया से जरा भी रिलेशन नहीं है। अविवेकी लोग अपने अहम/ ईगो को अपना स्वरूप मान लेते हैं। जो साधक अपने अहम से अलग होने लगता और तत्ववित हो जाता है, उसमें क्रतत्व  का भाव नहीं रहता, वह लगातार, हमेशा चिन्मय तत्व में ही स्थित रहता है। गीता के इस मर्म की व्याख्या करते हुए स्वामी रामसुख कहते हैं व्यक्ति अपने अहंकार के चलते भूल से खुद को कर्ता मान लेता है। और जब वह खुद को कर्ता मानता है तो फलों से भी बंध जाता है और 8400000 योनियों में पहुंच जाता है। 

वह खुद को यदि मैं/ ईगो से अलग माने, खुद को कर्ता ना माने और खुद वास्तव में जैसा है वैसा ही एक्सपीरियंस कर ले तब वह तत्ववित हो जाता है। यानी मुक्त हो जाता है।

बहुत आसान बात है जो झूठ है, असत्य है उसे हम सत्य मान लेते हैं, तो वो सत्य जैसा दिखने लगता है। तो फिर सोचिये जो वाकई में सच है, सत्य है रियलिटी है ट्रुथ है उसे यदि हम वैसा ही मान लेंगे तो वैसा ही दिखने लगेगा। उसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। हम जब खुद को कर्ता और भोक्ता मानते हैं  तब भी हम कर्ता भोक्ता नहीं होते।  

हम कितनी ही दृढ़ता से माने, कितने ही कॉन्फिडेंस से माने कि मैं करने वाला हूं तब भी यह भूल है और जैसे ही हम भूल को भूल मानते हैं, वो मिट जाती है। 

कहीं अंधकार है, जैसे ही हम लाइट करेंगे अंधकार खत्म हो जाता है। उसमें कई साल नहीं लगते। इसलिए यदि हम दृढ़ता से यह मान ले कि मैं कर्ता नहीं हूं तो यह मान्यता नहीं रहेगी यह अनुभव में कन्वर्ट हो जाएगा। जब जड़ चेतन एक हो जाते हैं, हारमोनी में आ जाते हैं, जब “चेतन” जड़ की तरफ  देखता है तो कर्ता भोगतापन आता है, अहंकार आता है। जब “जड़”, चेतन की तरफ और चेतन, चेतन की तरफ देखता है तो वह तत्ववित्त हो जाता है।

साधक सोचता है कि मैं करने वाला नहीं हूं, मैं अकर्ता हूं, करने वाला तो परमात्मा ही है, लेकिन फिर भी उसके मन में यह भाव आ जाता है कि मैंने जो कुछ किया है वह गलत है, और उसे दुख लगता है, गलती का एहसास होता है, क्योंकि उन कर्मों के संस्कार उसे सुख दुख देते हैं। लेकिन यदि हम अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित है, खुद को कर्ता नहीं मानते और आज ही तय कर लेते हैं कि मैं कर्ता नहीं हूं। तब भूतकाल के कर्म भी “फल” देना छोड़ देते हैं। यानी हमें उनके कारण सुख और दुख का अनुभव नहीं होता। क्योंकि भूतकाल में भी वर्तमान था वर्तमान में भी वर्तमान और भविष्य में भी वर्तमान ही होगा। 

वर्तमान में कोई कर्म करना बनता ही नहीं है तो फिर हम उसके भागीदार कैसे हो गए। जैसे ही दृढ़ निश्चय आ गया कि मैं अकर्ता हूं मैं करने वाला नहीं हूं। सत्ता काल के बाहर है, काल से अतीत है, कालातीत है वह किसी भी काल में कर्ता नहीं है। इसलिए यदि हम अपनी सत्ता में स्थित हो गए तो फिर हम कर्ता नहीं रह जाते, और उन कर्मों के बंधनों, फलों से मुक्त हो जाते हैं जो किये गए हैं। 

इसलिए हमारी दृष्टि, नजर  सत्ता मात्र पर रहनी चाहिए। सत्ता ज्ञान स्वरूप है, निर्विकार होने के कारण आनंद स्वरूप है, अखंड शांति स्वरूप है। 

जब हमारा तादात्म्य शरीर से हो जाता है तो हर क्रिया में हमें लगता है कि मैं देखता हूं, मैं सुनता हूं। क्रियाएँ होती हैं शरीर में। इसलिए शरीर के द्वारा क्रिया होने पर भी सत्ता मात्र पर ऊपर ही नजर, दृष्टि रखनी चाहिए। सिद्धयोग इसकी अनुभूति कराता है, क्योंकि उसमें जो क्रियाएं होती हैं, जो स्वाभाविक योग मुद्रा आसन होते हैं, उससे समझ में आ जाता है कि वास्तव में मैं करने वाला नहीं है।

 

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