उपलब्धियों का आधार हमारे जीवन जीने के तरीकों पर निर्भर है।
सादगी सभ्यता का चिह्न है। संसार के सभी भले आदमियों ने सदा 'सादा जीवन और उच्च विचार' की नीति को अपनाया है। सात्विक प्रकृति के लोग यही पसंद करते हैं कि वे साधारण सभ्य नागरिक की भांति सीधा-सादा जीवन व्यतीत करें। इस सरलता में ही उनकी श्रेष्ठता छिपी रहती है। जानने वाले जानते हैं कि श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिखावटी आचार-व्यवहार से नहीं वें सादगी से ही देते हैं।
सादगी के लिए सहिष्णुता का होना बहुत आवश्यक है। हम सहनशील बनें और प्रकृति की प्रतिकूलताएँ एवं मनुष्य की प्रतिकूल भावनाओं को शांतिपूर्वक सहन करने की आदत डालें, तभी हम संसार में सुख पूर्वक जीवन का निर्वाह कर सकते हैं।
धर्म कर्तव्यों की मर्यादा तोड़ने वाले कुमार्गगामी मनुष्य की गतिविधियों को रोकने के लिए, उन्हें दंड देने के लिए समाज और शासन की ओर से जो प्रतिरोधात्मक व्यवस्था हुई है, उससे सर्वथा बचे रहना संभव नहीं। धूर्तता के बल पर आज कितने ही अपराधी-प्रवृत्ति के लोग सामाजिक भर्त्सना से ओर कानूनी दंड से बच निकलने में सफल होते रहते हैं। पर यह चाल सदा सफल होती रहेगी, ऐसी बात नहीं है।
असत्य का आवरण अंतत: फटता ही है ओर अनीति अपनाने वाले के सामने न सही पीछे उसकी निंदा होती ही है। नागरिक कर्तव्यों का पालन भी सादगी का ही रूप है। जीवन में बड़ी-बड़ी सफलताओं, संभावनाओं एवं उपलब्धियों का आधार हमारे जीवन जीने के तरीकों पर निर्भर है।
हम कैसे चलते हैं, उठते हैं, सार्वजनिक जीवन की आवश्यक बातों का कितना ध्यान रखते हैं, इसी पर हमारे जीवन का निर्माण होता है। किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए इन व्यावहारिक बातों में सफल होना आवश्यक है। जो अपने व्यवहार में इन बातों का ध्यान नहीं रखते, दूसरों के हित-अनहित का विचार नहीं करते, स्वेच्छाचार अपनाते हैं, वे समाजद्रोही कहलाते हैं।
नम्रता नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है, जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में स्थित शाश्वत सत्य से, ईश्वर से संबंध कराती है। इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है। जगत में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर, मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है।
श्रम ही सादगी की सबसे बड़ी पहचान है। श्रम से हट कर लोग अपने को महान घोषित करना चाहते हैं, यह उनका भ्रम ही है। उद्यमशील व्यक्तियों का मुख-मंडल सदैव चमकता हुवा दिखाई देता है और अकर्मण्य व्यक्ति सदैव क्लांत, उद्विग्न, दुखी और खोटी कल्पनाओं में फंसे देखे जा सकते हैं।
परिश्रमी ही सबसे अधिक सुखी, प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। वे भले ही भौतिक सम्पत्ति, समृद्धि में बड़े न हों, किन्तु उनका आंतरिक धन, जिससे मानसिक संतोष, हल्कापन और प्रसन्नता का वे अनुभव करते हैं, यह संसार की सबसे बड़ी संपत्ति है।
परिश्रम से ही स्वास्थ्य में सुधार होता है। उद्यमी व्यक्ति थककर अपनी शैया में प्रवेश करता है और उसे स्वास्थ्य पूर्वक उत्तम नींद आती है। प्रात:काल उठने पर वे तरोताजगी, प्रफुल्लता, शक्ति, प्रसन्नता आदि का अनुभव करते हैं।
आलसी, अकर्मण्य ही दुस्वप्नों एवं अनिद्रा पड़े हुए सुबह भी आलस्य, चिंता और भारीपन-सा अनुभव करते हैं। वास्तव में सादगी एक सच्चाई है और उससे व्यक्ति अपने शरीर पर कम ध्यान देता है, अपितु उसका ध्यान मन को संवारने में ही लगा रहता है।
विद्यालंकार
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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