 Published By:दिनेश मालवीय
 Published By:दिनेश मालवीय
					 
					
                    
जीवन में ऐसे कुछ सवाल हैं, जिनका आजतक कोई प्रामाणिक जवाब नहीं मिल सका है. कुछ लोगों ने इनका जवाब दिया तो दिया, लेकिन स्वतंत्र रूप से सोचने वाले जिज्ञासुओं को कोई भी जबाव पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाया. कोई कहता है, जीवन क्षणभंगुर है, दो दिन का तमाशा है, लिहाजा जमकर मौज मना लो. हमारे देश में चार्वाक इसी विचारधारा के पोषक थे. उन्होंने इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा था कि ‘उधार लेकर भी घी पियो, मरने के बाद कुछ नहीं रह जाने वाला.’
कोई कहता है, कि जीवन बहुत छोटा है, इसका उपयोग ईश्वर की आराधना में लगाओ. अच्छे कर्म करो. दान-पुण्य करो. सदाचार से रहे. कुछ लोगों का कहना है कि जन्म-मरण जैसी कोई चीज होती ही नहीं है. न जन्म है न मृत्यु. जिसे हम जन्म कहते हैं वह चेतना की अनंत यात्रा का एक पड़ाव मात्र है. मृत्यु के बाद चेतना आगे की यात्रा पर निकल पड़ती है. जन्म से पहले और मृत्यु के बाद जीवन किसी न किसी रूप में अस्तित्व में रहता है.
अन्य कुछ लोगों का मानना है कि मृत्यु के बाद सब-कुछ ख़त्म हो जाता है, तो कोई कहता है कि मरने के बाद नया जन्म होता है; कोई कहता है कि मरने के बाद इन्साफ के दिन तक इंसान कब्र में सोता रहेगा और वह दिन आने पर ईश्वर उसका न्याय करेगा. कर्मों में अनुसार कोई स्वर्ग या नरक में जाएगा. लेकिन इसके बाद क्या होगा, यह वे नहीं बता पाते. यह भी धारणा है, कि बहुत अच्छा जीवन जीने वाला जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाएगा. उसकी आत्मा परमात्मा या परम अस्तित्व में विलीन हो जाएगी. अनगिनत धर्म-समुदाय हैं, अनगिनत ग्रंथ-पोथियाँ हैं, अनगिनत धर्माचार्य हैं, अनगिनत विचारधाराएँ है. हर कोई अलग-अलग बात करता है. ऐसे में वास्तविकता जानने को जिज्ञासु मन क्या करे ?
कितने युग बीतने के बाद भी इन विषयों पर आज तक कोई एक समाधानकारक उत्तर नहीं आया है. या तो इनका कोई उत्तर है नहीं, या फिर जिसे इनके उत्तर पता रहे, उन्होंने जानबूझ कर नहीं दिए. हो सकता है, कि ये उत्तर इतने चौंकाने वाले हों, कि मनुष्य को विश्वास ही न हो. अनेक लोगों ने कहने का प्रयास भी किया, लेकिन शायद वह कहने का प्रयास भर होकर रह गया. ये उत्तर कदाचित शब्दातीत हैं. इन प्रश्नों के उत्तरों में बहुत भिन्नता और विरोधाभास दीखता है.
इसका कारण संभवतः यह रहा हो, कि जिसे परम ज्ञान हो जाता है, वह जब किसीको कुछ बताता है, तो उसके मानसिक स्तर, समझने की क्षमता और योग्यता को देखकर उपयुक्त शब्द और तरीके चुनता है. कई लोग तो कुछ कहते हैं, और जब उन्हें लगता है कि जो उन्होंने कहा, वह समझा नहीं गया, तो वे सदा के लिए मौन हो जाते हैं. ऐसा कई लोगों ने किया है. मेहर बाबा इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं. ज्ञान होने के बाद उन्होंने जीवन के शेष चालीस वर्ष मौन में ही बिताये. भगवान् बुद्ध कुछ प्रश्नों पर चुप हो जाते थे.
लगता है, जो लोग जीवन को क्षणभंगुर मानकर उसे जी भर के भोगने की बात करते हैं, वे भी सही हैं और जो लोग इसे ईश-आराधना में लगाने की बात करते हैं, वे भी सही हैं. जन्म और मृत्यु के अस्तित्व को मानने वाले भी अपनी जगह सही हैं और मृत्यु के बाद सब कुछ ख़त्म हो जाने की बात करने वाले भी अपनी जगह सही हैं. जब तक किसी को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वह अपनी किताबों में कही हुयी बातों और अपने विचारों को ही सही मानता रहता है. कोई विकल्प भी नहीं है. जो भी व्यक्ति जिस बात को सही या गलत मानता है, उसके पक्ष या विपक्ष में तर्क ढूंढ लेता है. यही तर्क की विशेषता भी है. कोई भी किसी बात का खंडन या मंडन करना चाहे तो तर्क उपलब्ध है.
अब सवाल उठता है कि क्या ये सवाल बेमानी हैं ? ऐसा लगता है, कि जब तक इनके बेमानी होने का अहसास नहीं हो जाता, तब तक ये इनके बहुत मानी हैं; अनुभाव हो जाने के बाद बेमानी. विचारशील मनुष्यों के मन में यह प्रश्न सदा से उठते रहे हैं, कि हम कहाँ से आये हैं? क्यों आये हैं? यहाँ से कहाँ जाना है? इन प्रश्नों के उत्तर जानने की अकुलाहट ही तो मनुष्य को सच की खोज में लगाती है.
इसी जिज्ञासा से सारे अध्यात्म का जन्म हुआ है. इसे कोई साधना कहता है तो कोई और नाम देता है. साधना से अनेक लोगों ने कई गूढ़ प्रश्नों के उत्तर जाने, जो चेतना की परम अवस्था में उनके भीतर प्रकाशित हुए. ऐसे लोगों को दृष्टा कहा जाता है. गूढ़ प्रश्नों के समाधान किताबों में नहीं मिलते. इनका तो अपने भीतर से प्रकाशन होता है. जब इस प्रकाशित ज्ञान को कोई लिखता है, तो उस लिखे हुए को अपौरुषेय कहते हैं, क्योंकि जिस समय वह ज्ञान प्रकाशित हुआ और जब उसे लिखा गया तब वह व्यक्ति चेतना के उस धरातल पर होता है, जहाँ उसका व्यक्तिगत अस्तित्व खत्म हो जात है.
इसीको किसी भाषा में नाज़िल होना या इलहाम होना कहते हैं, तो किसी में intuition. सच पूछिए तो इस अवस्था में पहुँच कर जो भीतर से प्रकाशित हो, वह सही उत्तर है. लेकिन ऐसा बहुत दुर्लभ होता है. फिर, जिसको यह हो जाता है, वह इसे कहे या न कहे; और अगर कहे तो किस रूप में कहे, यह वो देश-काल
परिस्थिति के अनुसार तय करता है. लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो वह कह रहा है, वही पूरा सच हो, क्योंकि पूरा सच कभी शब्दों में व्यक्त नहीं होता. इस प्रकार, ये प्रश्न सदा से अनुत्तरित हैं और लगता है आगे भी रहेंगे.
 
 
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