Published By:धर्म पुराण डेस्क

धर्म पर स्वामी विवेकानन्द के कुछ विचार...

'संसार का प्रत्येक धर्म गङ्गा और युफ्रेटिस नदियों के मध्यवर्ती भूखण्ड पर उत्पन्न हुआ है। एक भी प्रधान धर्म यूरोप या अमेरिका में पैदा नहीं हुआ। एक भी नहीं। प्रत्येक धर्म ही एशिया सम्भूत है और वह भी केवल उसी अंश के बीच ये सब धर्म अब भी जीवित हैं और कितने ही मनुष्यों के लिये उपकारजनक हैं।'

'हिंदू जाति ने अपना धर्म अपौरुषेय वेदों से प्राप्त किया है। वेदान्त में दिये हुए धर्म के सिद्धान्त अपरिवर्तनीय हैं; क्योंकि वे उन शाश्वत सिद्धान्तों पर आधारित हैं जो कि मनुष्य और प्रकृति में हैं। वे कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकते। आत्मा के और मोक्ष प्राप्ति आदि विचार कभी भी नहीं बदल सकते।'

"भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों पर विश्वास के समान हिंदू धर्म नहीं है, वरं हिंदू धर्म तो प्रत्यक्ष अनुभूति या साक्षात्कार का धर्म है। हिंदू धर्म में एक जातीय भाव देखने को मिलेगा। वह है आध्यात्मिकता अन्य किसी धर्म में एवं संसार के और किसी धर्म-ग्रन्थ में ईश्वर की संज्ञा निर्देश करने में इतना अधिक बल दिया गया हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता।'

‘धर्म अनुभूति की वस्तु है। मुख की बात, मतवाद अथवा युक्ति मूलक कल्पना नहीं है-चाहे वह कितनी ही सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना-उसका साक्षात्कार करना- यही धर्म है। धर्म केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है, समस्त मन-प्राण विश्वास के साथ एक हो जाय-यही धर्म है।'

'धर्म का अर्थ है आत्मानुभूति, परंतु केवल कोरी बहस, खोखला विश्वास, अँधेरे में टटोलबाजी तथा तोते के समान शब्दों को दुहराना और ऐसा करने में धर्म समझना एवं धार्मिक सत्य से कोई राजनीतिक विष ढूँढ़ निकालना- यह सब धर्म बिलकुल नहीं है।'

"प्रत्येक धर्म के तीन भाग होते हैं। पहला दार्शनिक भाग- इसमें धर्म का सारा विषय अर्थात् मूलतत्त्व, उद्देश्य और लाभ के उपाय निहित हैं। दूसरा पौराणिक भाग- यह स्थूल उदाहरणों के द्वारा दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है। इसमें मनुष्यों एवं अति प्राकृतिक पुरुषों के जीवनके उपाख्यान आदि लिखे हैं।

इसमें सूक्ष्म दार्शनिक तत्त्व मनुष्यों या अति प्राकृतिक पुरुषों के जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाये गये हैं। तीसरा आनुष्ठानिक भाग- यह धर्म का स्थूल भाग है। इसमें पूजा-पद्धति, आचार, अनुष्ठान, शारीरिक विविध अङ्ग-विन्यास, पुष्प, धूप, धूनी प्रभृति नाना प्रकार की इन्द्रियग्राह्य वस्तुएँ हैं। इन सबको मिलाकर आनुष्ठानिक धर्म का संगठन होता है। सारे विख्यात धर्मो के ये तीन विभाग हैं।' 

'ईश्वर पृथ्वी के सभी धर्मो में विद्यमान है। यह अनन्तकाल से वर्तमान है और अनन्तकाल तक रहेगा। भगवान्ने कहा है-'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।' मैं इस जगत्‌ में मणियों के भीतर सूत्र की भाँति वर्तमान हूँ- प्रत्येक मणि को एक विशेष धर्म, मत या सम्प्रदाय कहा जा सकता है। पृथक्-पृथक् मणियाँ एक-एक धर्म हैं और प्रभु ही सूत्र-रूप से उन सब में वर्तमान हैं।'

'निःस्वार्थता ही धर्म की कसौटी है। जो जितना अधिक निःस्वार्थी है, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक और शिव के समीप है।'

'जहाँ यथार्थ धर्म वहीं आत्मबलिदान। अपने लिये कुछ मत चाहो, दूसरों के लिये ही सब कुछ करो यही है ईश्वर में तुम्हारे जीवन की स्थिति, गति तथा प्रगति ।'

'क्या वास्तव में धर्म का कोई उपयोग है? हाँ, वह मनुष्य को अमर बना देता है। उसने मनुष्यों के निकट उसके यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित किया है और वह मनुष्यों को ईश्वर बनायेगा। यह है धर्म की उपयोगिता । मानव-समाज से धर्म पृथक् कर लो तो क्या रह जायगा। कुछ नहीं, केवल पशुओं का समूह ।'

'संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी या प्रतिरोधी नहीं हैं। वे केवल एक ही चिरन्तन शाश्वत धर्म के भिन्न-भिन्न भावमात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिरकाल से समस्त विश्व का आधार रूप रहा है।'

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