 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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संसार में हमें अपनी आत्मा की पहचान के लिए एक निरंतर प्रश्न उठता है - "मैं कौन हूँ?" क्या यह स्थूल शरीर ही हमारी पहचान है या इसके परे कुछ है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें अपनी आत्मा की अद्वितीयता को समझना आवश्यक है।
श्रुतियों का दृष्टिकोण
वेदों ने हमें यह सिखाया है कि आत्मा अनन्त, अज्ञेय, अदृष्ट, अमृत, अचल, अव्यक्त, अनिर्गुण, असंग, अनादि, शब्द, नित्य, एक, निर्मल, बुद्धिमान, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वाधारी है। आत्मा न तो देखी जा सकती है, न श्रवण की जा सकती है, और न उसे समझा जा सकता है। यह अज्ञेय और अदृष्ट है। इसका अनुभव सीधे मन और बुद्धि से नहीं हो सकता, केवल श्रद्धा और साधना से ही संभव है।
आत्मा का शरीर के साथ संबंध
आत्मा शरीर के साथ संबंधित नहीं है, इसे शरीर के बिना भी पहचाना जा सकता है। यह स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के परे है और सभी शरीरों के विकारों से मुक्त है। इसे न कोई जन्म लेता है, और न कोई मरता है।
आत्मा का अनुभव
आत्मा को जीवन के अनुभवों के माध्यम से पहचाना जा सकता है, जब हम विचार करते हैं कि "मैं दुःखी हूँ" या "मैं खुश हूँ" तो यह आत्मा के विभिन्न अवस्थाओं को अनुभव करने का प्रमाण है। आत्मा अविकारी, नित्य, शाश्वत, और परमानंद स्वरूप है।
साधना का मार्ग
आत्मा की पहचान के लिए साधना और ध्यान का मार्ग है। योग, मेधावी चिन्ह, और आत्मा के स्वरूप की साक्षात्कार की प्रक्रिया मार्गदर्शन करते हैं। इस मार्ग पर चलकर, हम आत्मा को अनुभव करके सच्चे स्वरूप में पहुंच सकते हैं और अपनी अद्वितीयता को समझ सकते हैं।
समाप्ति
इस प्रयास का उद्देश्य है कि विचारक अपने आत्मा के स्वरूप को समझकर आत्मा के अद्वितीयता में लीन होकर शांति और सुख का अनुभव करें। साधना, श्रद्धा और आत्मज्ञान के माध्यम से, हम अपने आत्मा की अनंत शक्ति, ज्ञान, और आनंद का अनुभव कर सकते हैं और सच्चे स्वरूप में मुक्त हो सकते हैं।
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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