 Published By:कमल किशोर दुबे
 Published By:कमल किशोर दुबे
					 
					
                    
पहले पेड़ बहुत थे घर-घर, गौरैया नित आती थीं।
बच्चों के सँग खेल- खेल में, कलरव मधुर सुनाती थीं।।
पर्यावरण बिगाड़ा हमने, गौरैया कम दिखती है।
वन-उपवन सब उजड़ गए तो, धरा बहुत ही तपती है।।
दाना-पानी मिले नहीं जब, वह कितनी अकुलाती है।
मेरे आँगन में गौरैया, फुदक-फुदक इतराती है।।
कीट-नाशकों की रुसवाई, रास नहीं उसको आती।
तीक्ष्ण रसायन से जीवों की, प्रजनन क्षमता घट जाती।।
जगह-जगह मोबाइल टॉवर, तीक्ष्ण-तरंगें बाँट रहीं।
पशु-पक्षी सह मानव तन को, निशिदिन ही यह चाट रहीं।।
कंक्रीटों की प्रगति अनोखी, जीवन काल घटाती है।
मेरे आँगन में गौरैया, फुदक-फुदक इतराती है।।
कहाँ बनाये नीड़ चिरैया, क्या मानव समझा पाये।
दाना-पानी नहीं मिले तो, तड़प-तड़पकर मर जाये।।
गाँव-गाँव में पेड़ बहुत थे, पक्षी थे आबाद यहाँ।
प्रगति की अंधी दौड़ में मानव, समझ सका यह सत्य कहाँ।।
गौरैया को बच्चे तरसें, कभी-कभी दिख पाती है।
मेरे आँगन में गौरैया, फुदक-फुदक इतराती है।।
जीवन में खग-विहग सभी का, होना बहुत जरूरी है।
पर्यावरण बिना धरती पर, जीवन ही मजबूरी है।।
जब से पेड़ लगाए मैंने, चिड़िया नीड़ बनाती है।
चीं-चीं चहक शुष्क- साँसों को, सुख- सम्बल दे जाती है।।
जब से बच्चे दिए नीड़ में, निशिदिन ही वह आती है।
मेरे आँगन में गौरैया, फुदक-फुदक इतराती है।।
कमल किशोर दुबे
 
 
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