सिन्धु शब्द ही प्रचार में आकर ‘हिंदू’ बना है। ‘हिंदू' शब्द का अर्थ है वह देव-मनुष्य, जो चिच्छक्ति के सातों लोक को प्राप्त हुआ हो।
हिंदुस्तान ऐसे सत्यदर्शी देव-मनुष्यों की पुण्य भूमि है। इसे पुण्य भूमि भारतवर्ष भी कहते हैं; कारण, यह धर्म-शक्ति की निधि है। धर्म की शक्ति ही दुख और दैन्य की छाया माया से मनुष्यों को बचाती है। यही इस पृथ्वी पर स्वर्ग है, सुख-समृद्धि और सौन्दर्य का धाम है। जो इस देश में उत्पन्न हुए और जो इस पुण्य भूमि के भक्त हैं, इसे ही अपना घर मानते हैं, वे भारतीय हैं।
उत्तरापथ के हों या दक्षिणापथ के, आर्य हों या द्रविड़, ब्राह्मण हो या हरिजन, सभी भारतीय हैं- चाहे उनका वर्ण या धर्म सम्प्रदाय कुछ भी हो-यदि वे भारत में भारत के लिये रहते और अपनी श्रद्धा-भक्ति और जीवन भारत की सेवा और उन्नति में लगाते हैं। चिच्छक्ति की इस एकता में हमारे देश का भावी गौरव छिपा हुआ है। इस आधारभूत एकता के अभाव में हमारे देश को बार बार गुलामी के बन्धनों में जकड़ना पड़ा है।
भारतवर्ष को देव-मनुष्यों का आशीर्वाद प्राप्त है। आध्यात्मिक ज्ञान की अथाह सम्पत्ति उसके पास है। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, भागवत, महाभारत, भारत-शक्ति, योग सिद्धि और संतों के भजन- सभी सत्यानुभूति और अंतर्ज्ञान की दुर्लभ निधि हैं- जो आज मानव जाति को प्राप्त हैं।
वैज्ञानिक संस्कृति में भी भारत वर्ष अकिंचन नहीं है। पूर्वकाल में उसका विज्ञान उसके लिये पर्याप्त था। आज चाहे वह बात न हो। संगीत, चित्रकला, मूर्ति निर्माण कला, वास्तु शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, अस्त्र-विद्या, फलित ज्योतिष आदि में और कोई देश भारत के आगे नहीं बढ़ा है। योगशास्त्र में भारत वर्ष आज भी जगद्गुरु है। जगत के सभी देशों से लोग भगवान के इस मंदिर की यात्रा करने आते हैं।
इन सब गौरवमयी बातों के होते हुए भी, भारतवर्ष को पिछले पांच सौ वर्ष विदेशियों के दासत्व में रहना पड़ा। उसकी शक्ति क्षीण हुई, उसकी सन्तानों को विवश होकर विदेशी मत ग्रहण करने पड़े और अपने ही देश में विदेशी बनकर रहना पड़ा। ऐसा क्यों हुआ?
कुरुक्षेत्र के युद्ध के साथ भारतवर्ष को एक नयी दुनिया का सामना करना पड़ा और नये अनुभवों में से होकर जाना पड़ा। भारतवर्ष का ऋषि धर्म संन्यास के एक गलत रूप के सामने दबता गया, उसकी समर-शक्ति क्षीण होती गयी। इससे समाज दुर्बल हुआ, समाज के चार वर्ण सहस्त्रों साम्प्रदायिक टुकड़ों में विच्छिन्न हो गये और परस्पर का अंतर दिन-दिन अधिकाधिक चौड़ा ही होता गया।
विदेशी आक्रमणों के सामने समाज का पुराना ढांचा ढह गया। सिकंदर अपनी यूनानी फौज के साथ इस देश में घुस आया। स्व देशद्रोहियों ने उसे रास्ता दिखाया। नामधारी राजा भी इतने कोमलांग थे कि उसका प्रतिरोध न कर सके। एक पुरुष (या पुरुषोत्तम) उससे लड़ने के लिये सिंह की तरह आगे बढ़ा, पर उसे हार खानी पड़ी। वह आक्रमणकारी के हाथ कैद हुआ, पीछे छोड़ दिया गया।
नन्दराजवंश उस समय राज्य करता था। उसमें इतना बल नहीं था कि विदेशियों के इस आक्रमण का सामना कर सकता। एक चतुर राजनीतिज्ञ ने यह सब देखा और समझा। एक नवीन शक्तिशाली हिंदू-राज्य स्थापित करने का वह स्वप्न देख रहा था। इसका नाम था चाण्क्य, जिसका अर्थशास्त्र' ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसने चन्द्रगुप्त मौर्य को अपने हाथ का यन्त्र बनाया, उसमें अपनी शक्ति भर दी।
चन्द्रगुप्त ने निकम्मे नन्द को हराकर यूनानी सेना के सेनापति सेल्यूकस के भी दाँत खट्टे किए और अपनी माता मुराके नाम पर मौर्य राजवंश की स्थापना की।
भारतवर्ष ने राष्ट्रों की पंक्ति में अपना गौरवमयी स्थान प्राप्त किया। यह गौरव प्रियदर्शी राजा अशोक के समय में अपने शिखर तक पहुँचा। अशोक बौद्ध थे, उन्होंने बौद्ध धर्म में कर्म की प्रचण्ड शक्ति भर दी।
बौद्ध भिक्षु भारतवर्ष से दूर-दूर देशों में जाकर भगवान बुद्ध के नैतिक उपदेशों का प्रचार करने लगे। स्तूप और विहार निर्मित हुए। लंका से गया तक समस्त देश में बुद्ध, उनके धर्म और संघ के पावन नाम गूंजने लगे। महाराज हर्ष तक यह क्रम चला। अशोक के पश्चात् फिर विदेशी सेनाएँ भारतवर्ष पर चढ़ आयी और उन्होंने यहाँ के राजनीतिक और सामाजिक संघटन को विघटित कर छिन्न-भिन्न कर डाला।
बहुत-से नये-नये राजवंश बरसाती मेंढकों की तरह निकलकर और क्षणभर जीकर विलीन हो गये। देश छोटे-छोटे राज्यों से टुकड़े-टुकड़े हो गया और सब एक-दूसरे के उत्कर्ष में बाधक बनकर एक-दूसरे के नाश का उपाय सोचने लगे।
दक्षिण भारत में चेर, चोल, पांड्य, पल्लव, राष्ट्रकूट आदि कों में राजनीति होड़ चली। पर दक्षिण भारत को विदेशी उतना उजाड़ नहीं सके, जितना कि उत्तर भारत को उत्तर में जो आध्यात्मिक अग्नि बुझ रही थी, वह दक्षिण में स्थिर रूप से प्रज्वलित थी।
शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि समय रहते आ गए और उन्होंने आत्मज्ञान तथा भक्तिप्रदीप से देश में उजाला कर दिया। उनमें व्यक्तिशः कुछ सिद्धांतों का भेद था, पर इस विषय में सबका एकमत था कि मनुष्य का परम लक्ष्य उस परमेश्वर को प्राप्त करना है, जो एकमेवाद्वितीयम् है।
उन्होंने यह भी शिक्षा दी कि सब प्राणियों के अंदर जो विशुद्ध आत्मा है, वही प्राणिमात्र का सतीत्व है, वह दिव्य है और सर्वव्यापक है। पीछे के आचार्यों ने इसी सत्य को दुहराया। बहुत से लोग अवश्य ही शाब्दिक वितण्डावाद में पड़ गये और केवल निष्प्राण रूढ़ियों के दास बने रहे।
सृष्टि- सामर्थ्य रखनेवाला अन्तर्ज्ञान सुषुप्त होकर रहा। वह कड़ी, जो आत्मा के साथ जागतिक जीवन कर्म को जोड़ती है, खो गयी। हमारी प्राचीन संस्कृति में जो कुछ सामर्थ्यवती वस्तु थी, वह उन पुरुषार्थ हीन, निष्प्राण, यांत्रिक रीतियों के नीचे दबी रह गयी, जो किसी राष्ट्र के उन्नति साधन में बिल्कुल बेकार है। हमारे अंदर जो विश्वासघाती देशद्रोही लोग थे, वे अपने ही भाइयों से लड़ने के लिए विदेशियों को बुला लाये !
इस प्रकार स्वाधीन भारत के अन्तिम नृप पृथ्वीराज के शत्रु ने मुसलमान-सेनाओं के आने के लिए रास्ता साफ किया। शस्त्रवेशी कुरान ने तीन शताब्दियों तक अपने जोर जुल्म का राज इस देश में कायम रखा और लाखों हिंदुओं को धर्म-भ्रष्ट किया। उस राज ने अपने रक्त चिन्ह आज पाकिस्तान में रख छोड़े हैं। भारतवर्ष ने अपना स्वराज्य खोया; कारण, अपना स्वधर्म खो दिया। राणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह अपने राष्ट्र को फिर से स्वाधीन करने के लिये अद्भुत वीरता के साथ उठे; पर स्वधर्म फिर भी दूर ही रहा।
अब एक अनात्म कर्मवाद की लहर देश पर दौड़ गयी। इस समय वैज्ञानिक संस्कृति ने श्वेत जातियों को संसार की विजेतृ-शक्ति बना दिया था। इसके राजनीतिक और व्यापारिक संघटन से टकराकर भारत अपनी आध्यात्मिक परंपरा की संपत्ति खो चुका था।
राष्ट्र में कोई ऐसी जीवित शक्ति नहीं थी, जो अंग्रेजों और फ्रेंचों की कूटनीतिक चालों का सामना कर सकती। कभी कोई नाना या टीपू अथवा बाजीराव इस विदेशी परापहरण के जाल को छिन्न करने के लिए निकल पड़ते पर उनके त्याग और वीरत्व पर विश्वासघाती लोग आकर पानी फेरने के लिये तैयार हो जाते। भारतवर्ष में इतनी फूट थी कि सारा राष्ट्र राजनीतिक शत्रुओं का सामना करने के लिये एक होकर कोई प्रयत्न न कर पाता था। इस तरह दो सौ वर्षो तक हमारा देश गुलामी की यन्त्रणाएँ भोगता रहा।
पर भारत की आत्मा सो नहीं सकता। उसकी ज्वालाओं ने उसमें युग-तेज उत्पन्न किया और अकस्मात् राष्ट्र के पुनरुज्जीवन का उदय हुआ। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रामलिंगम आदि अनेक महान संतों ने जन्म लेकर नये युग का मंगल गान गाया। उनकी वाणी ने राष्ट्र को जगाया और जगत को उस आध्यात्मिक सत्ता का संदेश सुनाया, जिसका ज्ञान उसे भारतवर्ष ही दे सकता है।
तिलक, श्री अरविन्द और महात्मा गांधी ने राष्ट्र की राजनीतिक चेतना को जगाया और उसे स्वभाग्य निर्णय तक पहुँचाया। महात्मा गांधी स्वयं एक युग थे। भारतवर्ष की गौरव गरिमा के शिखर, उसकी स्वाधीनता के जन्मदाता और ऐसे एकमात्र राष्ट्र विधाता थे, जिनके सामने सारा जगत् नतमस्तक हुआ।
सेवा और त्याग से परिपूर्ण अपने अद्भुत जीवन के द्वारा भारतवर्ष की प्रतिष्ठा उन्होंने फिर से स्थापित की और स्वयं बुद्ध, ईसा और महावीर जैसे जग उद्धारक महापुरुषों की पंक्ति में बैठने के अधिकारी हुए।
भारत अब एक स्वाधीन देश है, पर दुख है कि वह अब विभक्त है; उसके हृदय के दो टुकड़े हो गये हैं! स्वाधीनता की बलिवेदी पर सहस्रों-लाखों हिंदू काटे गए। भारतवर्ष की शान्ति को राजनीतिक चरमपंथियों ने महीनों यहाँ-वहाँ बुरी तरह से आन्दोलित कर रखा था। गांधीजी के बलिदान के पश्चात् भी अभी तक संकट टला नहीं है।
राष्ट्र ने अभी एकत्व का पाठ नहीं पढ़ा। राष्ट्र के सामने इस समय कितने ही विकट प्रश्न हैं। आर्थिक प्रश्न तो सर्वोपरि है। फिर मजदूरों का प्रश्न है। गंगा और कावेरी जिस देश में बहती हैं, विदेशों से अन्न मँगाना पड़े, यह कितनी शोचनीय अवस्था है। लाखों-करोड़ों मनुष्यों को अन्न-वस्त्र और घर बनाने के सामान देने के लिए बड़े-बड़े कारखाने खोलकर यांत्रिक शक्ति से उत्पादन बढ़ाने का बहुत बड़ा काम है। स्थलसेना, जलसेना और वायुसेना को इतना सुसज्जित और शक्तिशाली बनाना है कि वह उस जागतिक परिस्थिति का सामना कर सके, जो दिन-दिन अधिकाधिक भयानक होती जा रही है। किसानों को संभालना है।
सामाजिक सुव्यवस्था बाँधनी है। इन सब बातों में भारतीय यूनियन के मंत्रियों का ध्यान बंटा हुआ है। इन सब चीजों के परे एक बहुत बड़ा काम यह है कि जिन विभिन्न घटकों से यह महान् विशाल राष्ट्र बना है, उनमें एकता और अखण्डता स्थापित हो। विभक्त भारत में अब हमारा एक भारतीय यूनियन या संघ है; परंतु भारत का यह संघ पूरा नहीं बना है।
हमारे राष्ट्रीय मेल और ऐक्य के विरुद्ध कई विच्छेदक और विभेदक शक्तियाँ गुप्त रूप से अपना काम कर रही हैं। ये ही विच्छेद और विभेद की आसुरी शक्तियाँ संसार में सर्वत्र ही क्रियाशील हैं। विश्वव्यापी तृतीय महायुद्ध के सामान इनके द्वारा जुटाए जा रहे हैं।
गौरैया एक साथ रहतीं, एक साथ उड़ती और सुखी रहती हैं। मधुमक्खियां एक साथ शहद के छत्ते पर चिमटती और सामाजिक मिलन का रहस्य गुनगुना कर मनुष्य को सुनाती हैं। तारकापुंज शान्ति के साथ व्यूह बाँधे नित्य-नवीन उषःकाल की ओर चलते हैं। पर मनुष्य ने कभी अपने भाई के साथ सुख और मेल से रहना नहीं सीखा। इसका कारण क्या है? कारण राजनीतिक उतना नहीं, जितना कि मानसिक है।
अन्तःस्थ चेतन एकता में मनुष्य का मन ही नहीं है। वह 'मैं' और 'मेरे' के चक्कर में ही रहता है। उसे उस मूलभूत अन्तःस्थ एकता का अभी पता ही नहीं है, जो सब जीवों को एक साथ धारण किये हुए है-जैसे मणिमाला का सूत्र मणियों को सत्पुरुष की चेतना प्राणियों की अनेकता में सदा उस एक को देखती है।
मनुष्य इसे भूला रहता है। वह इस बात को भूल जाता है कि वह भी मानव-समष्टि का वैसा ही एक अंग मात्र है, जैसे एक उंगली शरीर का अंग है। मनुष्य अहंभाव युक्त विभक्त मन में रहता है और यह मन अपने एक पृथक् व्यक्ति होने का संकुचित रूप धारण करता है। यह व्यक्तिगत अहं कभी-कभी अपने को ईश्वर से भी बड़ा मान लेता है। मनुष्यों के शून्यवाद, अज्ञेयवाद और नास्तिवाद का यही कारण है।
जरा सोचो, यह पृथ्वी क्या है? ऊपर आकाश के इस विशाल वितान को देखो। असंख्य नक्षत्र और ग्रह यहाँ निरन्तर घूम रहे हैं। आकाश में परिभ्रमण करने वाले इन असंख्य ज्योर्ति मण्डलों में हमारी यह पृथ्वी एक बहुत ही छोटे-से अणु के बराबर है। कोई विलक्षण गुप्त शक्ति है, जो इन्हें चलाती है। उस शक्ति को हम 'ईश्वर' कहते हैं।
वह सर्वत्र व्यापक है और वह एक जड धूलिकण से लेकर प्रज्ञावान् मनुष्य तक सब प्राणियों का, प्रकृति के द्वारा विकास साधन कराता है। तरु-लता वनस्पति, कीट, पतंग, पक्षी, पशु और मनुष्य सब मिलकर प्राणियों का एक ही परिवार हैं। सब एक ही वायु से श्वास लेते, एक ही धरती पर चलते और विश्व के वितान एक ही द्युलोक से प्राप्त वस्तुएं ग्रहण करते हैं।
ईश्वर ने मनुष्य को एक ही आकाश, एक ही पृथ्वी, एक ही आत्मा और सबके एक होने की ही भावना दी। ईश्वर ने मनुष्य को एक हृदय दिया, जिससे वह दूसरों के साथ मेल से रहे, दूसरों को अपने ही दूसरे रूप, दूसरे अहं समझे। पर अहंग्रस्त मनुष्य अपने हृदयमें छिपी हुई इन स्वाभाविक सद्वृत्तियोंका पोषण नहीं करता और 'मैं' और 'मेरे' के सिवा और कोई माप-जोख नहीं जानता। यही उस विभेद का मूल है, जिसका फल है द्वेष।
द्वेष से ही अशान्ति पैदा होती है। मनुष्य के लिए खतरनाक हो गया है; क्योंकि वह अपने-आपको नहीं जानता, अपने ही परिवर्तित अन्य रूप को नहीं जानता। मनुष्य को अपना पृथक्कृत व्यक्तित्व विश्वचैतन्य में मिला देना होगा। यह जगत की एकता के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना कि राष्ट्र की एकता के लिये राज्यों का केन्द्रीय सरकार के शासन में मिलाया जाना।
जगदुद्धारक महापुरुष आये और चले गये; समाज सुधारक और क्रियाहीन तत्त्वज्ञानी बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे गये। राजनीति के राजतंत्र से लेकर अराजक तंत्र तक और सैनिक अधिनायकवाद से लेकर जनतन्त्रात्मक समाजवाद तक बड़े-बड़े प्रयोग किये जा चुके। पर संसार का रवैया जो कल था, सो आज है और यही बना रहेगा, जब तक मनुष्य यह नहीं जानेगा कि वह स्वयं क्या है और उसे क्या होना चाहिए।
ऋषि का वचन है, 'आत्मा को नीचे मत गिरने दो, अपने आत्मा को अपने ही आत्मा के द्वारा ऊपर उठाओ; आत्मा आनन्दामृत से सिक्त है, उसे जानो और वही बनो।' पर स्वार्थ सुख की स्वार्थी भूख और प्यास से ही मनुष्य का मन जब आकुल है, तब आत्मा की इस गंभीर वाणी को कौन सुनता है ?
यह असंख्य शीर्ष स्वार्थपरता और स्वार्थ अनुसंधान जीवन के वैयक्तिक, कौटुंबिक, नागरिक, प्रान्तिक, राष्ट्रिक, सर्वराष्ट्रिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक-सभी क्षेत्रों में संचार कर रहे हैं। वर्णगत, सम्प्रदायगत और जातिगत कुसंस्कार मनुष्य की इसी प्रचण्ड स्वार्थपरता की संतान हैं।
एक धर्म सम्प्रदाय दूसरे धर्म सम्प्रदाय से द्वेष करता है। क्यों? इसलिए कि प्रत्येक धर्म यह समझता है कि ईश्वर, स्वर्ग और सद्गुणों पर उसी का ठेका है। एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से द्वेष करता है। क्यों? इसलिए कि कोई प्रान्त अन्य प्रान्त के सांस्कृतिक सौन्दर्य को देखना नहीं चाहता, केवल उसके साधनों का शोषण कर लेना चाहता है। एक भाषा दूसरी भाषा का तिरस्कार करती है, क्योंकि उसके गुणों को स्वीकार करने में वह अपनी हेठी समझती है।
यदि हम इन बातों को भारतवर्ष पर घटाकर देखें तो अच्छी तरह हमारी समझ में आ जाएगा कि हम क्या हैं, क्यों हैं और हमें क्या होना चाहिए। गांधीजी के नैतिक बल ने भारत की जनता को जगाया और स्वाधीनता से देश को विभूषित किया। पर यह स्वाधीनता, जो इतनी कठिनाई से प्राप्त हुई, विरोधी शक्तियों के द्वारा भीतर से और बाहर से भी झटका दे-देकर कमजोर की जा रही है।
विधान परिषद ने विविधता से परिपूर्ण इस विशाल राष्ट्र के केवल सांसारिक सुख के साधक प्रस्ताव पास किये हैं। रूस के 'सोशल कंट्रैक्ट', फ्रेंच राज्यक्रांती और अमेरिका की स्वाधीनता के मूल अधिकारपत्रों का ही इसने बहुत कुछ अनुसरण किया है। भारतवर्ष के आध्यात्मिक सत्त्व को इस नवीन विधान में कोई स्थान नहीं मिला। इसलिए वर्तमान सरकार से यह आशा नहीं है कि देश के आध्यात्मिक उत्थान के लिये वह कोई विशेष यत्न कर सकेगी।
पर सामाजिक जीवन के लिये इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। राष्ट्र की सरल उन्नति में सभी दलों के दलगत कुसंस्कार बाधक होते हैं। आध्यात्मिक चेतना से ही इन कुसंस्कारों को हटाया जा सकता है। सामाजिक जीवन में एकता और सुसंगति तभी होती है, जब हृदय मिलकर एक हों। यह हृत् तत्त्व के उद्घाटन और आत्म चैतन्य की अनुभूति से ही हो सकता है।
राष्ट्र के जीवन का मानव-समष्टि में निवास करने वाले भगवान के साथ योग होना चाहिए। मनुष्य मनुष्य के अंदर जो भगवत्-तत्त्व है, उसे पहचाने। हर किसी का जीवन सबके लिये हो या सबका हर किसी के लिये। इसीका नामान्तर है 'आध्यात्मिक समाजवाद अर्थात् आत्म चैतन्य के अंदर मानव जाति का समष्टि जीवन। यही परम कल्याणमय जीवन है।'
जन्म, कुल, स्थान और भाषागत भेदों के रहते हुए भी सब मनुष्य एक परिवार की तरह रह सकते हैं यदि प्रत्येक व्यक्ति अन्तःस्थ आत्मा को ध्यान में रखकर सोचे और कर्म करे। एकीभाव उत्पन्न करने वाली इस चेतना के पोषण के लिये साधना आवश्यक है। यह साधना ऐसी हो कि उससे हमारे जीवन के भौतिक और हार्दिक अंग परिपुष्ट हों।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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