अध्यात्म: स्त्री जाति के प्रति मातृभाव प्रबल करो, अर्जुन और शिवाजी ने पेश किए आदर्श..
श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे:“ किसी सुंदर स्त्री पर नजर पड़ जाय तो उसमें माँ जगदम्बा के दर्शन करो। ऐसा विचार करो कि यह अवश्य देवी का अवतार है, तभी तो इसमें इतना सौंदर्य है। माँ प्रसन्न होकर इस रूप में दर्शन दे रही हैं, ऐसा समझकर सामने खड़ी स्त्री को मन-ही-मन प्रणाम करो। इससे तुम्हारे भीतर काम विकार नहीं उठ सकेगा। "मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्"'परायी स्त्री को माता के समान और पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान जानो।' शिवाजी महाराज का प्रसंग : महायोद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज का एक सहयोगी कल्याण के किलेदार को हराकर उसकी रूपवती पुत्रवधू को पकड़कर ले आया तो उस समय शिवाजी ने यही आदर्श उपस्थित किया था। उन्होंने उसको 'माँ' कहकर पुकारा तथा कई उपहार देकर सम्मान सहित उसके घर वापस भेज दिया। छत्रपति शिवाजी परम गुरु समर्थ रामदास के शिष्य थे। अर्जुन और उर्वशी : अर्जुन सशरीर इन्द्र-सभा में गया तो उसके स्वागत में उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराओं ने नृत्य किये। अर्जुन के रूप-सौन्दर्य पर मोहित होकर उर्वशी रात्रि के समय उसके निवास स्थान पर गयी और प्रणय-निवेदन किया तथा साथ ही इसमें कोई दोष नहीं लगता' इसके पक्ष में अनेक दलीलें भी दीं किंतु अर्जुन ने अपने दृढ इन्द्रियसंयम का परिचय देते हुए कहा: " यथा कुन्ती च माद्री च शची चैव ममानघे। तथा च वंशजननी त्वं हि मेऽद्य गरीयसी ॥ गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि। त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया ।। " 'मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पुरुवंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिए परम गुरुस्वरूप हो। हे वरवर्णिनि ! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि में तुम माता के समान पूजनीय हो और पुत्र के समान मानकर तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए।' (महाभारत- वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्व ४६.४६, ४७) उर्वशी हाव भाव से और तर्क देकर अपनी कामवासना तृप्त करने में विफल रही तो क्रोधित होकर उसने अर्जुन को १ वर्ष तक नपुंसक होने का शाप दे दिया। अर्जुन ने उर्वशी से शापित होना स्वीकार किया परंतु संयम नहीं तोड़ा। जो अपने आदर्श से नहीं हटता, धैर्य और सहनशीलता को अपने चरित्र का भूषण बनाता है, उसके लिए शाप भी वरदान बन जाता है। अर्जुन के लिए भी ऐसा ही हुआ। जब इन्द्र तक यह बात पहुँची तो उन्होंने अर्जुन से कहा: "तुमने तो अपने इन्द्रियसंयम के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया। तुम जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्रवाली है। उर्वशी का शाप तुम्हें वरदान सिद्ध होगा। भूतल पर वनवास के १३वें वर्ष में तुम्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा, उस समय यह सहायक होगा। उसके बाद तुम अपना पुरुषत्व फिर से प्राप्त कर लोगे।" इन्द्र के कथनानुसार अज्ञातवास के समय अर्जुन ने विराट के महल में नर्तक वेश में रहकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य विद्या सिखायी थी, तत्पश्चात् वह शापमुक्त हुआ। परस्त्री के प्रति मातृभाव रखने का यह एक सुंदर उदाहरण है। ऐसा ही एक उदाहरण वाल्मीकिकृत रामायण में भी आता है। भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण को जब सीताजी के गहने पहचानने को कहा गया तो लक्ष्मणजी बोले: “हे तात! मैं तो सीता माता के पैरों के गहने और नूपुर ही पहचानता हूँ, जो मुझे उनकी चरणवन्दना के समय दृष्टिगोचर होते रहते थे; केयूर-कुण्डल आदि दूसरे गहनों को मैं नहीं जानता।" यह मातृभाववाली दृष्टि ही इस बात का एक बहुत बड़ा कारण था कि लक्ष्मणजी इतने काल तक ब्रह्मचर्य का पालन किये रह सके। तभी रावणपुत्र मेघनाद को, जिसे इन्द्र भी नहीं हरा सका था, लक्ष्मणजी हरा पाये। पवित्र मातृभाव द्वारा वीर्यरक्षण का यह अनुपम उदाहरण है जो ब्रह्मचर्य की महत्ता भी प्रकट करता है| भारतीय सभ्यता और संस्कृति में 'माता' को इतना पवित्र स्थान दिया गया है कि यह मातृभाव मनुष्य को पतित होते-होते बचा लेता है। श्री रामकृष्ण एवं अन्य पवित्र संतों के समक्ष जब कोई स्त्री कुचेष्टा करना चाहती, तब वे सज्जन, साधक, संत यह पवित्र मातृभाव मन में लाकर विकार के फँदे से बच जाते। यह मातृभाव मन को विकारी होने से बहुत हद तक रोके रखता है। जब भी किसी स्त्री को देखने पर मन में विकार उठने लगे, उस समय सचेत रहकर इस मातृभाव का प्रयोग कर ही लेना चाहिए।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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