Published By:धर्म पुराण डेस्क

श्री रामानुजाचार्य: श्री रामानुजाचार्य दर्शन और इतिहास | समानता की मूर्ति

रामानुजाचार्य : 

आपत्तियां महापुरुषों के पथ को प्रशस्त ही करती हैं। 

आचार्य श्री रामानुज का जीवन प्रारम्भ से आपत्तियों में उलझा हुआ है और इन आपत्तियों ने उसे उज्ज्वलतर किया है। दक्षिण भारत का तिरुकुन्नर ग्राम उनके आविर्भाव से पवित्र हुआ। बहुत छोटी अवस्था में पिता केशव भट्ट परलोकवासी हो गये। कांची जाकर यादव प्रकाश जी से ये विद्याध्ययन करने लगे। 

योग्य गुरु शिष्य की प्रतिभा से प्रसन्न होता है; किंतु इनके शिक्षक अपना अपमान समझने लगे कि एक लड़का अपने तर्कों से उनके तर्कों में दोष निकाल दे। द्वेषवश इनके चचेरे भाई एवं सहाध्यायी गोविन्द भट्ट को नियुक्त किया उन्होंने इनका वध करने के लिये काशी यात्रा के बहाने वन में यह घोर कृत्य होना था; पर वन में क्या वे सर्वरक्षक नहीं रहते? एक व्याध और उसकी पत्नी ने वन में आचार्य की रक्षा की।

महापुरुष आलवन्दार (श्री यामुनाचार्य) ने आचार्य को स्मरण किया तब, जब वे श्री नारायण के नित्य धाम पधारने लगे। आचार्य श्रीरंगम् पहुँचे। इससे पूर्व ही उनका महाप्रस्थान हो गया। आचार्य ने देखा, आलवन्दार के हाथों की तीन उंगलियां मुड़ी हुई हैं। उन्होंने संकेत समझ लिया और नम्रता से सूचित किया 'मैं ब्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम्' की टीका अवश्य लिखूंगा या लिखवा दूंगा। महापुरुष के हाथ की उंगलियां सीधी हो गयी।

आचार्य ने श्री यतिराज से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। तिरु कोट्टियूर के महात्मा नाम्बि ने उन्हें अष्टाक्षर ( ॐ नमो नारायणाय) मंत्र की दीक्षा दी। गुरु ने आदेश दिया- 'यह परम गोप्य श्री नारायण-मंत्र है। अनधिकारी को इसका श्रवण नहीं करना चाहिये। इसके श्रवण मात्र से अधम प्राणी भी बैकुंठ के अधिकारी हो जाते हैं।

‘सुनो! सुनो! सब लोग सुनो और स्मरण कर लो। भगवान नारायण के इस मन्त्र को सुनने से ही प्राणी वैकुण्ठ का अधिकारी हो जाता है। आचार्य मन्दिर के शिखर पर खड़े होकर भीड़ का आह्वान करके उस परम गोप्य मन्त्र की घोषणा कर रहे थे।

रामानुज! तुमने यह क्या किया? मेरी आज्ञा भंग करने का फल तुम जानते हो?' गुरुदेव ने सुना तो बहुत अप्रसन्न हुए। इस प्रकार कहीं मन्त्र घोषणा की जाती है?

'गुरुदेव! आपकी आज्ञा भंग करके मैं नरक जाऊँगा, यही तो ? बेचारे इतने प्राणी श्रीहरि के धाम पधारेंगे। मैं अकेला ही तो नरक की यातना भोगूँगा?' 'आचार्य तो सचमुच तुम्हीं हो।' गुरुदेव ने शिष्य को हृदय से लगा लिया।

आचार्य की कीर्ति के साथ उनके शत्रु भी बढ़ते जा रहे थे। शत्रुओं ने अनेक बार उनके वध का प्रयत्न किया, उनके भोजन में विष मिलाया गया; पर प्रभु ने सदा रक्षा की। आचार्य ने सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। श्री महालक्ष्मी जी द्वारा प्रवर्तित प्रपत्तिमार्ग के अनुसार उन्होंने प्रस्थानत्रयी का 'श्रीभाष्य' किया। 

आचार्य के प्रधान शिष्य कुरताळवार (कुरेश) थे। कुरेश के दो पुत्र थे पराशर और पिल्लन। आचार्य की आज्ञा से पराशर ने विष्णुसहस्रनाम तथा पिल्लन ने 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका की। इस प्रकार श्री यामुनाचार्य की तीनों इच्छाएं आचार्य ने पूर्ण की।

श्रीरंगम् पर उन दिनों चोलराज कुलोतुंग का अधिकार था। ये कट्टर शैव थे। वैष्णवों के शत्रु होने के कारण राजा आचार्य से रुष्ट हो गये। उन्होंने आचार्य को अपने दरबार में बुलाया। राजा की दुरभिसन्धि स्पष्ट थी। 

कूरतालवार (कूरेश) ने गुरु के लिये बलिदान करने का निश्चय किया। वे आचार्य के स्थान पर स्वयं पेरियनाम्बि के साथ राजा के यहां पधारे। राजा इनके वैष्णव-धर्म के समर्थन से रुष्ट हो गया, उसने कूरेश की आँखें निकलवा ली। इन महापुरुष ने धैर्य से वह कष्ट सहन कर लिया।

चोळराज को अपनी क्रूरता से संतोष नहीं हुआ। वे आचार्य की खोज करने लगे; किंतु आचार्य उस समय मैसूर-राज्य में शालग्राम नामक स्थान में रहते थे। वहाँ के नरेश भिट्टिदेव परम वैष्णव थे। आचार्य वहाँ बारह वर्ष रहे। आचार्य की आज्ञा से राजा ने तिरु नारायणपुर के प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। 

वहां श्रीराम का जो विग्रह है, वह दिल्ली के बादशाह की कन्या के पास था। आचार्य ने उसे दिल्ली से लाकर प्रतिष्ठित किया। राजा कुलोत्तुंग के देहांत के पश्चात् आचार्य श्रीरंगम् पधारे। वहाँ उन्होंने श्रीरंग मंदिर का विस्तार कराया, उत्सव नियत किये। इस प्रकार एक सौ बीस वर्ष की। अवस्था तक श्रीरंग की सेवा और भक्ति का प्रचार करके आचार्य उनके श्रीधाम पधारे।

आचार्य श्री रामानुज ने जिस विशिष्टाद्वैत मत का प्रचार किया, उनकी परम्परा पूर्व से चली आ रही थी। द्वापर के अंत से उसमें 'आलवार' भक्तों का क्रम मिलता है। सरोयोगी या पोयगै, भूतत्त और पेय-ये तीन अत्यंत प्राचीन आळवारों का वर्णन मिलता है। 

ये क्रमशः कांची, महाबलीपुर और मैलापुर में हुए थे। इनके पश्चात् आचार्य 'तिरुमड़िशै' (भक्तिसार) का प्रादुर्भाव हुआ और फिर पाण्ड्य देश के तिरुक्कुरुकूर नगर में शठकोप स्वामी (नम्मालवार) का शठकोप स्वामी के प्रधान शिष्य 'मधुरकवि' अत्यन्त प्रख्यात हैं। 

केरल प्रांत में कुलशेखर प्रसिद्ध आलवार हुए। विष्णुचित पेरि आळवार और उनकी पुत्री गोदा (आण्डाल) की रचनाओं का तमिल में अत्यंत आदर है। श्रीयामुनाचार्य से पूर्व द्रविड़ाचार्य, गुहदेव, टंक, श्रीवत्सांक प्रभृति वैष्णवाचार्यों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य किये थे। 

विशिष्टाद्वैत-सम्प्रदाय की परम्परा श्री महालक्ष्मी से विष्वक्सेन, श्री शठकोप स्वामी, श्रीनाथ मुनि, पुण्डरीकाक्ष, श्री राम मिश्र स्वामी और श्री यामुनाचार्य इस क्रम से एक से दूसरे को प्राप्त हुई है।

आचार्य श्री रामानुज की परम्परा में महान् दार्शनिक एवं प्रकाण्ड विद्वानों का क्रम चलता ही आया है। श्रीदेवराजाचार्य, श्रीवरदाचार्य, श्रीसुदर्शनव्यास भट्टाचार्य, श्रीवीरराघवदासाचार्य, श्रीवादिहंसाम्बुजाचार्य, श्रीवेंकटनाथ वेदांताचार्य, श्रीमल्लोकाचार्य, आचार्य वरद गुरु, वरद नायक सूरि, अनन्ताचार्य, दोदय महाचार्य रामानुज दास, सुदर्शन गुरु, तीनों श्रीनिवासाचार्य, बुच्चि वेंकटाचार्य, श्रीनिवास दीक्षित आदि आचार्यों ने अपने ग्रन्थों से विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को स्पष्ट एवं विस्तृत किया है। 

आचार्य बौधायन, आचार्य ब्रह्मनन्दी और द्रमिडाचार्य ने विशिष्टाद्वैत का सिद्धांत ग्रन्थों का बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण विस्तार किया है।

श्री रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय आचार एवं भक्ति की भारत में पुनः प्रतिष्ठा की। बौद्ध एवं कापालिक धर्म से वैदिक धर्म क्षीणप्राय हो गया था। श्री शंकराचार्य ने सनातन धर्म को प्रतिष्ठित किया था, शास्त्रों के प्रति श्रद्धा जागृत कर दी थी; किंतु शास्त्रीय आचार की ठीक प्रतिष्ठा होकर हिंदू धर्म का पुनरुद्धार श्री रामानुजाचार्य द्वारा ही पूर्ण हुआ।




 

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