Published By:धर्म पुराण डेस्क

सुख और दुख के कारण क्या हैं?

सुख-दुःख - ये सब अपने-अपने होते 

सुख का आधार छिन जाने पर दुःख होना स्वाभाविक है। कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि आसरा सुरक्षित है, पर उससे सुख न मिले, सहारा न मिले तथा स्वार्थ सिद्ध न हो। ऐसी परिस्थिति में आश्रित व्यक्ति उसे छोड़ कर चले जाते हैं। हरेभरे वृक्ष पर हजारों पक्षी नीढ़ बना कर रहते हैं। किन्तु पतझड़ में उसे छोड़ कर चले जाते हैं, वे अन्य वृक्षों की खोज में निकल पड़ते हैं।

हमारे जीवन के दो पक्ष हैं-- वैयक्तिक और सामाजिक। ज्ञान, आचरण, शक्ति, संवेदन, सुख-दुःख -- ये सब अपने-अपने होते हैं एवं व्यक्तिगत होते हैं। व्यक्ति रहते हुए भी मनुष्य ने सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों को स्थापित किया। इन सम्बन्धों का प्रमुख आधार आत्मरक्षा और आत्म-तृप्ति ही रहा है। सुखवाद की भावना बलवती होती है, सुखवाद के साथ स्वार्थवाद जुड़ा होता है।

जीवन के तीन स्तर हैं - स्वार्थ प्रधान, परार्थ-प्रधान और परमार्थ-प्रधान। क्रमश: ये तीन वृत्त इस प्रकार हैं - मैं को केंद्र और तू को परिधि बनाकर, तू को केंद्र और मैं को परिधि बनाकर तथा न कोई केंद्र और न कोई परिधि। अंतिम स्थिति श्रेष्ठतम है, यह निर-अहंकार निष्काम भाव का स्तर है। अध्यात्म की भूमिका में ध्येय होता है, मात्र परमार्थ। और यह साधना का शिखर है। 


 

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