 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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तंत्र 'तन्' और 'त्र' इन दोनों धातुओं से बना है। तन् पद से प्रकृति और ईश्वर यानी शिव और शक्ति तथा 'त्र' से स्वाधीन भाव का बोध होता है। इस भाव को ध्यान में रखकर ही तंत्र का अर्थ देवताओं की पूजा आदि कर परम-पिता परमेश्वर को प्रसन्न करना होता है।
तंत्र का दूसरा भावार्थ आगम है जो भगवान शिव के मुख से आया वह पार्वती जी के मुख में पहुंचा तथा भगवान विष्णु ने अनुमोदित यानि सहर्ष स्वीकार किया, वही आगम अर्थात् तंत्र है।
बौद्ध तंत्र में भगवान बुद्ध के निर्वाण के 28 वर्ष के बाद भगवान बुद्ध ने बृजवासी के रूप में अवतार लेकर सभी तंत्रों की महिमा का वर्णन किया है। माँ तारा इस मत की उपास्या देवी हैं।
जैन तंत्र में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) जैन तंत्र के प्रवर्तक माने गये हैं ऋषभ देव के पुत्र नेमिनाथ को नागराज ने आकाश गामिनी विद्या दी। फिर गंधर्व और पन्नगों को नागराज ने 48000 विद्याएँ दीं। दिगम्बर ग्रंथों में 700 विद्याओं एवं 500 महाविद्याओं का उल्लेख है।
 
 
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