बुन्देलखण्ड-मंडल के शिल्पकला-प्रतिनिधि:
खजुराहो के मन्दिर हैं। खजुराहो बुन्देलखण्ड प्रान्त के वर्तमान छतरपुर राज्य में है और उन सड़कों का संधि स्थान पर स्थित है, जो बांदा से सागर और नौगांव से सतना जाती हैं। महोबा से यह ३४ मील दक्षिण और छतरपुर से २७ मील पूर्व में है।
चंदेलों की इस पवित्र भूमि के इतिहास से विदित होता है कि शैव होते हुए भी उन्होंने अन्य धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति विद्वेष न जताकर सराहनीय सहिष्णुता दिखायी। वैष्णव-धर्म, जैन-धर्म, शैव-धर्म तथा बौद्ध धर्म आदि विभिन्न मतों के अनुयायियों ने पूरी स्वतन्त्रता के साथ अपनी संस्कृति के मनोहरतम मंदिर निर्माण किये।
खजुराहो के ऊँचे-ऊँचे टीले और भग्नावशेष विस्तार सहित फैले हैं और नगर का लगभग आठ वर्ग मील क्षेत्र उनके फैलाव के अन्तर्गत आता है। अब यह नगर एक छोटा-सा गाँव मात्र रह गया है, जो खजुराहो-सागर या निनोराताल के दक्षिण-पूर्वी किनारे पर स्थित है।
निनोराताल, खजुराहो गांव और पास ही स्थित शिव-सागर झील के इर्द-गिर्द प्राचीन समय में 85 मन्दिर थे। उनमें से अब लगभग 20 ही शेष हैं। इन मंदिरों को सुगमतापूर्वक तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है– (1) पश्चिमी (2) पूर्वी तथा (3) दक्षिणी|
पश्चिमी श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधियों में प्रथम चौंसठ योगिनियों का मंदिर है। इसके भीतर का आँगन 104x60 फुट है, जिसके चारों ओर 65 कमरे हैं। इनमें से अब केवल 35 ही अवशिष्ट हैं। यह मंदिर नवीं शताब्दी का है।
दूसरा मन्दिर है कंडरिया महादेवका। यह चौंसठ योगिनियों के मंदिर के उत्तर में स्थित है और सभी मंदिरों से विशालकाय है। इसका आयत 12066, 10x101.9" है। इसके प्रवेश द्वार का तोरण अभिनन्दनीय है। इस पर देवी-देवताओं, गन्धर्वो आदि का अंकन है। अर्धमंडप और मण्डप की छतें अनोखी कला से परिपूर्ण हैं।
इनकी चित्रकारी और बेल-बूटे का काम आबू के जैन-मन्दिरों से किसी कदर कम नहीं। मंडप से आगे जाने पर महामंडप मिलता है। इसकी छत की सुन्दरता का बखान शब्दों से परे है। सम्पूर्ण छत चौकोर आकार वाली है। ठीक मध्य में एक बड़ा सा वृत्त है। इसके चारों ओर आठ अन्य वृत्त हैं। इन आठों वृत्तों के भीतर ताश के चिड़ी पत्तों के-से सुन्दर चिन्ह अंकित हैं।
इन वृत्तों के बाहर मुग्धकारी बेल-बूटे अंकित किये गये हैं। इस अलंकरण के बाद आता है एक दीर्घवृत्त, जो इन सब वृत्तों को अपने अंतर में समेटे है। इस दीर्घवृत्त के चारों कोनों पर अनोखी बेलें हैं, जो समूचे दीर्घवृत्त की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं। तदनन्तर एक चतुर्भुज बना है, जो छत के मध्य भाग को देदीप्यमान किये है। इस चतुर्भुज के दोनों ओर तो तीन-तीन मंगलकर्ता पुष्प हैं, जो सरसों के बसंती पुष्पों की भांति खिले हुए छत का श्रृंगार किये हैं। छत की कोरों में और मध्य में कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां हैं।
सब मिलाकर छत वर्णनातीत है और वे दर्शक धन्य हैं, जिनके इस छत वाले कंडरिया मंदिर की प्रदक्षिणा कर आये हैं। अन्त में महामंडप पार करके गर्भगृह आता है। इसके प्रवेश-द्वार पर लता-चित्रों के साथ-साथ तपस्वियों और योगियों के ध्यानावस्थित चित्र भी प्रदर्शित किये गये हैं।
पार्श्व स्तम्भों पर गंगा और यमुना नदियाँ अपने-अपने वाहनों समेत विराजती हैं। गंगा का वाहन है मकर और यमुना का कच्छप। गर्भगृह में संगमरमर-निर्मित एक शिवलिंग है, जो देखने में दूध-ऐसा श्वेत और स्पर्श में हिमानी जैसा शीतल लगता है। मन्दिर की बहिर्मुख दीवारों पर नीचे आठों दिक्पालों की मूर्तियाँ हैं।
मंदिर के उत्तरी, दक्षिणी तथा पश्चिमी कोनों पर स्तंभ आधारित बड़े-बड़े आलय हैं, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश की साक्षात् मूर्तियां अथवा उनके अवतारों की मूर्तियां स्थापित हैं। मन्दिर भर में अप्सराओं और किन्नरों की अनेक विध नृत्य मुद्राएँ और भाव-भंगियों का दिग्दर्शन है।
ऐसा लगता है मानो वे अपने लुभावने सौन्दर्य से मुनियों और तपस्वियों को आकर्षित कर रही हैं और उन्हें उनकी ध्यान-समाधि से डिगाने का प्रयत्न कर रही हैं। मंदिर के शिखरों पर क्रमशः अमलक बड़े होते चले गये हैं। सर्वोच्च शिखर पर छोटे अमलक पर गगरी के आकार का एक अमृतघट शोभायमान है, जो दूर से देखने में बड़ा मंगलमय मालूम होता है।
दूसरा महत्वपूर्ण मंदिर है लक्ष्मण मन्दिर, जो कंडरिया के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसकी निर्माणकला की तुलना में भारतवर्ष का कोई मंदिर नहीं ठहरता। इस मन्दिर के एक स्थान पर गुरु और उसके चारों ओर बैठे हुए विद्यार्थियों का दृश्य दिखाया गया है। लक्ष्मण मन्दिर के तीन ओर प्रदक्षिणा-पथ है।
अत्यंत पवित्र मंदिर मतंगेश्वर महादेव का है। इसमें मतंगेश्वर की 4 फुट 5 इंच ऊंची शिवलिंग मूर्ति है और इसका व्यास २० फुट २ इंच है। इसकी चमक अद्भुत है। मूर्ति पर कई अभिलेख उत्कीर्ण हैं, जिनमें एक की भाषा फारसी है तथा शेष की नागरी। इसी मन्दिर के सामने की वराह-मूर्ति 8 फुट 9 इंच x 5 फुट 9 इंच के आयत की है और एक ही शिलाखण्ड से गढ़ी गई है।
कुछ साल पहले वराह-मूर्ति के बाएं दांत पर अवस्थित माता पृथ्वी की मूर्ति भी थी, जिसके अवशेष | आधारशिला पर उनके पद-चिह्न हैं।
पूर्वी-श्रेणी के महत्त्वपूर्ण मन्दिरों में हनुमान्-मन्दिर है। इस पर हर्षकालीन राज्य वर्ष 316-922 ई० का एक अभिलेख है। यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है।
दूसरा मंदिर है जवारि। इसके गर्भगृह में चतुर्भुज भगवान विष्णु की शुचिता नयी मूर्ति है।
दक्षिणी श्रेणी के मंदिरों में दूला-देव मंदिर प्रसिद्ध है। इसका वास्तु-विधान सराहनीय है। इसका दूलादेव नाम क्यों पड़ा, यह विवादपूर्ण विषय है। कहा जाता है कि एक समय एक बारात इस मन्दि रके पास से ज्यों ही गुजरी, त्यों ही वर सवारी पर से नीचे गिर पड़ा और परम गति को प्राप्त हो गया। तभी से मंदिर को दूलादेव का मन्दिर कहा जाने लगा।
इस श्रेणी में जत्कारि-मंदिर की विष्णु-मूर्ति 9 फुट ऊंची है और अभय मुद्रा में है।
खजुराहो के मंदिर शिल्पकला के महान् प्रतीक हैं। शिल्पकार की सूझबूझ, विशाल सदाशयता तथा टाँकी का यह अनुपम उदाहरण है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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