Published By:कमल किशोर दुबे

भगवान श्रीकृष्ण और सपनों की व्यथा ...

सत्यभामा और जामवंती भी उन्हें घेर कर बैठी हुई थीं। सभी की दृष्टि राजप्रासाद के मुख्य द्वार पर केंद्रित थी। उनकी चिंता भी अकारण नहीं थी। श्रीकृष्ण तीन दिन से घर नहीं आये थे। अचानक प्रभु का आगमन हुआ।  रुक्मणी जी सकुचाते हुए बोली - प्रभु आपके मुखमंडल पर यह थकान और व्यथा की झलक कैसी ? आपके अलसाए हुए नेत्र, सूजी हुई पलकें, मुखमंडल पर इतनी थकान क्यों ? साथ में सत्यभामा और जामवंती भी बोल पड़ीं - प्रभु हम तीन-तीन पटरानियाँ और सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ राजप्रासाद में आपकी कुशल-क्षेम पूछते हुए बावली हुई जा रही हैं। 

आप पिछली दो-तीन रातों से कहाँ रहे ? आखिर, ऐसा कौन- सा रहस्य है जो आप हमसे छुपा रहे हैं ? प्रभु शान्ति से आसन पर विराजमान हुए। सत्यभामा और जामवंती पंखा झलने लगीं। रुक्मिणी जी स्वयं जल लेकर आ गईं। प्रभु ने शान्ति से बैठकर जल पिया। फिर लंबी साँस लेते हुए बोले- मृत्युलोक में एक सनातन देश है- भारत वर्ष । वहाँ जनतांत्रिक शासन व्यवस्था है। इसमें उत्तर प्रदेश नाम का एक वृहद प्रदेश है। 

वहाँ आगामी मधुमास के फाल्गुन माह में विधानसभा के चुनाव हैं। जहाँ विगत एक माह से बड़ी काँव-काँव है। इसमें लाल, पीले, काले, नीले, सफेद टोपी, लाल टोपी, भगवा ध्वज एवं भगवा वस्त्रधारी नेताओं में होड़ लगी हुई है। ये सब अपना उल्लू सीधा करने के लिए तरह-तरह के स्वांग रचकर जनता को उल्लू बनाने के जतन कर रहे हैं। नित नूतन दाँव- पेंच अपना रहे हैं। इस राजनीति की बिसात पर बड़े-बड़े दल भी दल-दल में सिर से पाँव तक धँसे हुए नज़र आ रहे हैं। 

और ... इनमें कोई अपनी तिरछी टोपी को सीधी करते हुए सपने में मुझे अपना वंशज बताते हुए बुलाता है। फिर एक भगवावस्त्र धारी महंत अपने सपनों में पलक-पाँवड़े बिछाकर मुझे बुलाता है। इस घोर कलियुग में एक ओर एक परिवार की ताजपोशी के लिए मुझे अपना वंशज बताते हुए दुहाई देता है। तो दूसरा मेरा परमभक्त होने और संस्कृति की रक्षा के लिए झोली फैला रहा है। अब मैं जिसके सपनों में न जाऊँ वही बुरा मान जाएगा।  इस स्वप्नशाल श्लाघा में वे अपने अहं को पूरा करने के लिए बड़ी-बड़ी डींगें हाँक रहे हैं। मैं इससे भागने की कोशिश करता हूँ तो दिन के उजाले में डींगे हाँकने वाले ये दोनों अपनी -अपनी झोली फैला कर अनुनय विनय करते हैं- "प्रभु मेरी लाज बचाओ, बस,इस बार ताजपोशी करा दो"!  

एक की विकलता तो ऐसी है कि यदि मैंने इनके मनोरथ पूरे नहीं किये तो द्रोपदी की तरह इनका चीरहरण हो जाएगा। मैं, इतना विकल और बेवश तो महाभारत के समरांगण में भी नहीं हुआ। मैं इस राजनीति के दलदल में धँसा जा रहा हूँ। पलायन की कोशिश करता हूँ तो एक तो मुझे माखनचोर, रणछोड़ कहकर आर्तनाद करने लगता है।

सच, रुक्मणी मैं, दिन में भक्तों की इच्छाएँ, अभिलाषाएँ पूरी करने में व्यस्त रहता हूँ, असंख्य मंदिरों में भोग लगाता हूँ, परन्तु निशीथ काल में दिन भर काँव-काँव करने वाले इन नेताओं के सपने सजाता हूँ। इस समय कई योद्धा अपनी हार-जीत का आकलन करते हुए पूंछ वाले प्राणियों की तरह एक दल से दूसरे में छलांग मार रहे हैं। अब आप ही बताओ मैं आपको समय दे पाऊँ तो कैसे ? इन नेताओं से पीछा छुड़ाऊँ तो कैसे ? तीनों पटरानियाँ एक साथ बोलीं - प्रभु, आज आप रनिवास में ही विश्राम कीजिए। हम इन स्वप्न देखने वालों के सपने में महाकाली का रूप रखकर जाएँगी, डराएँगी। अब, प्रभु शान्तचित्त नज़र आ रहे थे।

 

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