अस्तेय का मूल अर्थ है- चोरी न करना। ईमानदारी और अनधिकार चेष्टा न करना भी अस्तेय के अंतर्गत आता है। स्तेय का अर्थ चोरी करना होता है। वस्तुत: चोरी क्या है और चोरी किसे कहते हैं? आप की अनुपस्थिति में आपकी कोई वस्तु दूसरा व्यक्ति उठा ले; अपने उपयोग में लेने लगे, आप को बाद में इसका पता चले तो यही चोरी है।
यह प्रवृत्ति सामाजिक अपराध एवं बुराई है। इससे मन संकुचित और मलिन होता है। चोर सदा डरता रहता है, उसके मन में सदा भय बना रहता है। इसलिए चोरी के बोझ को अपने ऊपर मत लादिए। हृदय रूपी पुष्प को खिलने दीजिए। मन को आशंका रहित कीजिए।
इस सन्दर्भ में एक कथा प्रसिद्ध है- शंख और खिल नाम के दो भाई थे। नदी के किनारे पास ही पास दोनों के आश्रम थे। उनमें फलदार वृक्ष थे। एक दिन खिल अपने बड़े भाई से मिलने आश्रम में आये। शंख कहीं बाहर गये हुए थे। पेड़ों पर पके हुए सुन्दर-सुन्दर आम लगे हुए थे। खिल ने आम तोड़े और उन्हें वह खाने लगा। खिल ने बिना किसी की अनुमति लिए आम तोड़े थे।
इतने में शंख आश्रम में आये और उन्होंने पूछा कि ये आम कहाँ से लिए ? खिल ने उत्तर दिया - भूख लगी थी, इन पेड़ों से फल तोड़े और खा लिए। शंख ने कहा- कितनी ही भूख क्यों न लगी हो, पर यह आपने बड़ा ही अनुचित किया, यह तो चोरी है। चोर को दंड देने का अधिकार तो मुझे नहीं है, दंड तो राजा ही दे सकता है। तुम राजा के पास जाओ और अपना अपराध बताओ। खिल राजा के पास गये, अपना अपराध बताया और कहा कि उसने चोरी की है। राजा से दंड देने की प्रार्थना की।
राजा ने कहा- ब्राह्मण देवता ! आपने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है। आपके पाप का प्रायश्चित हो गया, आपको क्या दंड देना है। आप वापस चले जाइये। खिल ने कहा- नहीं मेरे भाई की आज्ञा है, मैं अपना पाप बता रहा हूँ, आप जो उचित समझें मुझे दंड दीजिए। राजा ने कहा- क्या आप जानते हैं कि इस अपराध का क्या दंड हो सकता है ? इसका यही दंड है कि आपके दोनों हाथ काट दिए जाएँ। खिल ने कहा- आप मुझे जो दंड दे, वह मुझे स्वीकार है। राजा ने खिल के दोनों हाथ कटवा दिए। खिल कटे हुए हाथ लेकर अपने भाई के पास आया और कहने लगा- भाई ! मुझे अपने किए हुए पाप का दंड मिल गया है।
शंख ने कहा- अब एक काम और करो, इन कटे हाथों से नदी में खड़े होकर अपने पितरों का तर्पण करो। ज्यों ही खिल ने नदी में प्रवेश करके तर्पण किया, उसके कटे हाथों से कमल के समान कोमल सुन्दर-सुन्दर हाथ प्रकट हो गये, क्योंकि खिल ने धर्म और सत्य का पालन किया था।
इस कथा से यह तात्पर्य है कि व्यक्ति को अनजाने में भी चोरी नहीं करनी चाहिए उसे सदैव अस्तेय का भाव बनाये रखना चाहिए। एकरूप से मन, वाणी, शरीर द्वारा किसी प्रकार के भी किसी के स्वत्व को न चुराना, न लेना और न छीनना ही अस्तेय है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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