यह सारा नश्वर जगत माया के द्वारा रचित है यह एक ऐसी पहेली है जिसके बारे में जानना आसान नहीं है। महामति प्राणनाथ जी कहते हैं कि -
यह माया आदि भी है तथा अनादि भी है। माया को आदि इसलिए कहा गया है कि जब सृष्टि रचना होती है तब यह अपने अस्तित्व में आती है और इसे अनादि इसलिए कहा गया है कि इसका मूल बीज रूप में अक्षर पुरुष के अंदर हमेशा से विद्यमान है।
इस प्रकार माया आदि तथा अनादि काल से ही अज्ञान का अंधकार फैलाकर सर्वत्र व्याप्त है। जब इसे सृष्टि की रचना करनी होती है तब यह साकार रूप धारण कर लेती है और जब इसे सृष्टि की प्रलय करनी होती है तो यह निराकार रूप धारण कर लेती है। यह प्रत्येक जीव को जन्म एवं मृत्यु के द्वारा आवागमन के चक्कर में बांध के रखती है।
" ना पेहेचान प्रकृति की, ना पेहेचान हुकम।
ना सुध ठौर नेहेचल की, ना सुध सरूप ब्रह्म ।। "
अक्षर पुरुष की इच्छा का नाम माया है और माया को ही शास्त्रों में प्रकृति कहा गया है। इस मायावी संसार के लोगों को अक्षर ब्रह्म की इच्छा शक्ति अर्थात मूल प्रकृति की पहचान नहीं है, जिसके द्वारा यह सृष्टि रची गयी है।
इन माया के जीवों को यह भी पता नहीं है कि इस सृष्टि को क्यों बनाया गया है ? पूर्णब्रह्म परमात्मा कौन है ? जिसके आदेश से अक्षर पुरुष ने अपनी इच्छा (प्रकृति) के द्वारा स्वप्न के झूठे संसार की रचना की।
इन माया के जीवों को यह भी पता नहीं है कि अक्षर पुरुष तथा पूर्ण ब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत पुरुष का अखंड घर कहां है ? तथा इनका अपना स्वरूप क्या है ?
" सुध नाहीं निराकार की, और सुध नाही सुन ।
सुध ना सरूप काल की, ना सुध भई निरंजन ।। "
मायावी जीव को यह भी पता नहीं है कि निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार ये दोनों रूप माया के हैं और जिस सुंन (नींद) में यह सारा संसार बनता है वह अक्षर पुरुष की नींद है। प्रत्येक जीव में जो प्राणशक्ति है वह काल है और आंखों से जो ओझल है जो दिखाई नहीं देता है वह निरंजन है। इस स्वप्न की सृष्टि में सर्वत्र माया एवं काल का पसारा है। काल के द्वारा सभी बनने वाले मिटा दिए जाते हैं और शरीर को बनाने वाले जो 24 तत्व हैं- वे माया के अंग है तथा जो 25 वां तत्व चेतन है वह काल का अंश
बजरंग लाल शर्मा,
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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