Published By:धर्म पुराण डेस्क

पुरुष की मर्यादा और सात्विक जीवन …

धर्म पर चलने वाला है तो एक प्रकार का तेज उसके माथे पर चमकने लगता है, वह तेज एक तो सात्विक विचारों से उत्पन्न होता है दूसरे वह अपने जीवन मे उन्नति के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ जाने वाला होता है तीसरे एक नारी ब्रह्मचारी की कहावत के अनुसार वह पौरुषता मे भी बढ चढ कर होता है। 

महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को खंडित करने के लिये जिस प्रकार से रंभा नाम की अप्सरा ने इंद्र के कहने से उनकी ब्रह्मचर्य की अखंडता को समाप्त किया था उसी प्रकार से अगर इस कलयुग में भी कोई व्यक्ति अपनी मर्यादा में रहकर चलना चाहता है तो उस व्यक्ति के आसपास ही कितनी रम्भा आकर उसकी चरित्र की पौरुषता की अखंडता को विदीर्ण करने के लिये अपने आप बिना बुलाये आ जाती है और अपना काम करने के बाद चली जाती है| 

वह व्यक्ति जो अपनी मर्यादा मे चल रहा था अपने कार्य से कार्य रखने का कारण ही समझता था जिसे अपने परिवार और समाज से बहुत अच्छा सहयोग मिलता था जो नेक चलनी के लिये जाना जाता था उसे पथ से विचलित करने के बाद जब इसी प्रकार की रम्भाये आती है तो वह अपने आप ही कलयुगी ज़माने को धारण कर लेता है उसके बाद एक साधारण आदमी मे और उसमे कोई फ़र्क नही रह जाता है। 

मैंने पहले भी लिखा है कि कुंभ राशि के व्यक्ति मित्र बनाने की कला में पूर्ण  होते है वे भावनाओं की गहराई को जानते है और कहां किस प्रकार से भावना को आहत करना है इस बात का गूढ़ उन्हें पता होता है| इसका कारण होता है कि कुंभ राशि के छठे भाव में चन्द्रमा की राशि कर्क होती है और चन्द्रमा खुद उनके लिये मित्र बनाने की कला में निपुण कर देता है। 

एक बात और भी देखी जाती है कि जब कोई नया पशु जो मादा हो और वह नये नर पशुओं के बाडे में आ जाये तो हर नर पशु को उसे भगाने के लिये अपनी अपनी शक्ति का प्रयोग करने लगता है, उसी प्रकार से जब कोई सामाजिक मर्यादा में पहिनावे में चाल चलन मे अपनी संस्कृति के अनुसार रह रहा हो और उसके बीच में कोई नये पहिनावे वाला, अपने को दूसरो से अलग दिखाने वाला, हर बात में स्पष्ट कहने वाला आ जाये तो लोग अपनी संस्कृति पहिनावे और बोलचाल से दूर हटकर नये पन में जाने के लिये उस व्यक्ति की तरफ़ आकर्षित हो जाते है। 

वक्री गुरु और मार्गी गुरु इस बात के लिये अपनी पहचान बता देते है, जब कुंडली में वक्री गुरु होता है तो वह मार्गी गुरु के विपरीत चलता है। यानी मार्गी गुरु जब धर्म और आध्यात्मिकता को लेकर चलने वाला होता है किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को आजीवन चलाने वाला होता है तो वक्री गुरु केवल स्वार्थी भावना से अपने को समाज और मर्यादा से दूर रखकर विदेशी पहनावे में ले जाकर अपने को पूरी तरह से खुला रखकर सामने आता है, वैसे तो दबे स्वर में लोग उसकी बुराई करते है लेकिन सामने आकर उसकी बुराई भी नहीं कर पाते है। 

कालिदास ने अपने ग्रंथ "बृहद शकुंतलम" में राजा दुष्यंत और शकुंतला के चरित्र को इसी मार्गी और वक्री गुरु की उपाधि से विभूषित किया है। राजा दुष्यंत का गुरु वक्री था और शकुंतला का मार्गी था, राजा दुष्यंत ने अपने वन विहार के समय शकुन्तला के रूप और लावण्य को देखकर गन्धर्व विवाह कर लिया था तथा प्रणय के बाद उसे एक अंगूठी देकर चले गये थे, कि शकुन्तला जब राजा दुष्यंत के दरबार में उससे मिलने के लिये आये तो वह उस अंगूठी को दिखा दे, जिससे वे उसे पहिचान जायेंगे और अपना लेंगे|

कुछ दिन बाद वह अंगूठी सरोवर में स्नान के समय मे गिर गयी और उसे एक मछली निगल गयी। जहां दुष्यंत को शकुन्तला का कोई ख्याल नहीं था, वही शकुंतला राजा दुष्यंत के प्रणय के बाद अपने पुत्र भरत के साथ वन में ही निवास करने के बाद हमेशा राजा दुष्यंत के ख्यालो मे ही खोई रहने लगी, जब वह वक्री गुरु प्रणय के समय के गुरु के साथ बारह साल बाद गोचर में आया तो उस मछली को मछुआरे ने मारा और राजा दुष्यंत के राज्य की मुद्रा से अंकित अंगूठी को राजा दुष्यंत को दी| 

तब जाकर राजा दुष्यंत को शकुन्तला का ख्याल आया और वे शकुन्तला को लेने के लिये उसी जंगल में पहुंचे जहां उनका पुत्र शेर के दांत गिनने में मशगूल था। वक्री गुरु को अपना काम करने के बाद स्वार्थी भावना से याद नही रहता है कि उसे और कोई भी संबंध के मामले में मर्यादा का निर्वाह करना है वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के बाद अपने दूसरे उद्देश्य के लिये शुरु हो जाता है और उसे यह भी ख्याल नहीं रहता है कि उसे जिस सीढ़ी तक पहुंचाया गया है उसके नीचे भी कोई है, उसे केवल आगे बढ़ने और अपनी इच्छाओं की तृप्ति के लिये ही ख्याल रहता है, जो लोग उसकी कार्य शैली में आये होते है वे भले ही उसकी याद में अपने को तिल तिल कर जला ले लेकिन उसे इन बातों से कोई लेना देना नहीं होता है।

उपरोक्त कुंडली में चन्द्रमा से गुरु और शनि अष्टम भाव मे है और वक्री है, शनि वक्री बजाय मेहनत करने के बुद्धि से काम करता है, जबकि वक्री गुरु बजाय सम्बन्ध निभाने के केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति को ही करने के लिये अपने दिमाग को लगाये रहता है.

गुरु धन का मालिक है और शनि लगन का मालिक है, गुरु लाभ का भी मालिक है, तो शनि खर्च का भी मालिक है,अष्टम भाव विदेशी परिवेश से युक्त माना जाता है जाति का जिसकी यह कुंडली है अपने को विदेशी परिवेश में रखने के लिये तथा साफ़ और स्पष्ट बोलने के लिये अपनी कामुकता को प्रदर्शित करने के लिये तथा एक ही उद्देश्य लेकर चलने वाली कि वह कैसे भी कहीं भी अपने दिमाग का प्रयोग करने के बाद अधिक से अधिक धन को प्राप्त कर ले उसकी नजर मे कोई हो केवल उसकी स्वार्थ की पूर्ति हो जाये और वह जिस काम को चाहती है वह काम हो जाये भले ही वह अपने चरित्र को गंवा दे कोई दिक्कत नही है, भले ही वह किसी चरित्रवान का चरित्र भ्रष्ट कर दे उसे कोई लेना देना नही है भले ही उसकी याद मे कोई आजीवन आहे भरता रहे उसे कोई मतलब नही है उसे मतलब है तो केवल अपनी स्वार्थी भावना को पूर्ण करने के लिये कोई भी काम करना। 

अक्सर ऐसे लोगो को देखा जाता है कि वे अपने को अपने समाज से अलग दिखाकर अपनी तरफ़ लोगो को आकर्षित करने के लिये कारणो को प्रयोग करना। यह बात पुरुषों में भी देखी जाती है कि वे कुछ नही तो अपनी दाढ़ी मूंछ को ही विचित्र तरीके से कटवा कर चलने लगेंगे, जो पहनावा पहना जा रहा है उसे इस प्रकार से पहिनेंगे कि वे दूसरो से अलग थलग होकर दिखाई देने लगें। स्त्रियां पुरुषो को आकर्षित करने के लिये और पुरुष स्त्रियों को आकर्षित करने के लिये इस प्रकार के प्रभाव को प्रदर्शित करने लगते है।

वक्री गुरु वाले जातक एक स्थान पर टिककर नही रह सकते है, अगर वे एक स्थान पर टिके भी है तो उनका दिमाग एक स्थान पर नहीं रहता है, उन्हे अपने माता पिता भाई बहन परिवार समाज से कोई लेना देना नहीं होता है, जब कोई सामाजिक काम होता है या कोई परिवार का धार्मिक काम होता है तो वे उसे सामाजिकता और धार्मिकता से नही ग्रहण करते है उसके परिणाम की प्रतीक्षा करते है|

अक्सर इस प्रकार के कार्य उनके लिये एक मनोरंजन से अधिक कुछ भी नहीं है। शादी विवाह के सम्बन्धो मे भी देखा जाता है कि कभी भी अपनी रिश्ते वाली बातों को निभाकर चलने वाले नहीं होते है, अगर असमर्थ होकर निभाना भी पड़ता है तो वे या तो परिवार से या समाज से कट कर ही रहते है और उन कामों को करते रहते है जो उनके परिवार और समाज में कभी किये नही गये है। 

यह एक काम और भी बहुत अच्छा करता है कि इस प्रकार के गुरु वाले जातकों को पुरुष संतान या तो देता नहीं है और देता भी है तो वह संतान का सुख नहीं दे पाता है उसका कारण भी है कि जब संतान पैदा होती है तो गुरु मार्गी होता या अस्त होता है। गुरु और शनि जब अष्टम में वक्री होकर बैठे हो तो जातिका का साथ केवल अंतरंग संबंधों की संतुष्टि से आगे कुछ भी नही होता है,अगर कोई व्यक्ति इस ग्रह युति की जातिका से आजीवन सम्बन्ध बनाकर चलने वाली बात को सोचे तो उसका सोचना गलत होगा कारण जातिका को पता है कि वह जितना ले सकती थी उसे संतुष्टि मिल चुकी है और वह अपने नयेपन और नये अनुभव की तलाश मे आगे चली गयी होती है। 

वक्री गुरु से जब मंगल अष्टम में होता है तो इस प्रकार के जातक यौन रोगों से ग्रसित होते है, वक्री गुरु से जब बुध अष्टम मे होता है तो उनकी काम क्रिया मे महसूस करने वाली शक्ति का पता नही होता है,अष्टम वक्री गुरु से जब सूर्य अष्टम में होता है तो अक्सर एड्स जैसे रोग पाये जाते है जिनका कोई इलाज नही होता है। 

अष्टम वक्री गुरु से जब शुक्र अष्टम मे होता है तो इस प्रकार के जातक अक्सर काम क्रिया में निपणता को हासिल कर लेते है और अपनी काम संतुष्टि से मन चाहे धन और सुख सुविधा को प्राप्त करने के बाद बदले में संतुष्टि देने वाले व्यक्ति को रोग भी दे जाते है पथ से भ्रष्ट भी कर जाते है, मर्यादा और परिवार मे आग भी लगा जाते है व्यक्ति की उन्नति की क्रियाओ को समाप्त कर जाते है, धर्म और अन्य प्रकार के मोक्ष वाले साधनों से दूर भी कर जाते है। इस प्रकार की जातिकाओं का रूप एक भूतनी से अलग नहीं है.

लेखक : रामेन्द्र सिंह भदौरिया


 

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