वेदों में यत्र-तत्र सूक्त रूपी अनेक मुक्कामणियाँ बिखरी पड़ी है, जिसमें व्यक्ति की अभीष्ट सिद्धि के अमोष उपादान अन्तर्निहित हैं।
निष्ठा एवं आस्था के द्वारा व्यक्ति अपनी विविध कामनाओं की पूर्ति इनके माध्यम से करने में समर्थ हैं। वेद के प्रमुख संतों के स्वरूप ज्ञान, प्रयोजन- ज्ञान और तत्वज्ञान के बिना उनके अध्ययन, जप और तत्व प्रतिपादित अनुष्ठानों में प्रवृत्ति नहीं होती।
स्वरूप-ज्ञान और प्रयोजन-ज्ञान ही प्रवृत्ति प्रयोजन-ज्ञान के आधार हैं। किसी भी कार्य में व्यक्ति की प्रवृत्ति तभी होती है, जब उसे भली भांति प्रमाण समस्त रूप में यह ज्ञात हो जाय कि 'इस कार्य को करने में हमारा कोई विशेष अनिष्ट होने वाला नहीं है, प्रत्युत इससे हमारे उत्कृष्ट इष्ट की ही सिद्धि होने वाली हैं, "ऐसा ज्ञान होने पर ही वह उस कार्य में प्रवृत्त होता है।
साथ ही उसे यह भी ज्ञात होना चाहिये कि 'यह मेरी सामर्थ्य से साध्य है और मैं इसका अधिकारी हूँ। इन दोनों प्रकार के ज्ञान को ही प्रवृत्ति प्रयोजन ज्ञान कहा जाता है तथा प्रवृत्ति प्रयोजन के विषय के रूप में विषय, प्रयोजन, सम्बन्ध एवं अधिकारी इन चार विषयों का समावेश होने से उन्हें अनुबंध चतुष्टय कहा जाता है।
सूक्त किसे कहते हैं? अथवा सूक्तों का विषय क्या है? सूक्तों का प्रयोजन क्या है? सूक्तों से विषय का सम्बन्ध क्या है ? और इन सूक्तों का अधिकारी कौन है ? इन सबकी जानकारी की दृष्टि से अनुबन्ध का प्रतिपादन अनिवार्य है। अतः इस सम्बन्ध में कतिपय आवश्यक बातें संक्षिप्त रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं।
'सूक्त' शब्द 'सु' उपसर्ग पूर्वक 'वच्' धातु से 'क्त' प्रत्यय करने पर व्याकृत होता है। 'सूक्त' शब्द का अर्थ हुआ-'अच्छी रीति से कहा हुआ सूक्त का विशेष्य वैदिक मन्त्र है। इस प्रकार यह शब्द विविध उद्देश्यों को लेकर वेदों में कहे गये मन्त्रों का उद्बोधन होता है।
इन मंत्रों में तत्तद् देवों के स्वरूप एवं प्रभाव का वर्णन है। इन्हीं मन्त्रों में उन देवी एवं देवों के ध्यान तथा पूजन का सफल विधान भी निहित है। जो वेद मंत्र समूह एक दैवत्य और एकार्थ-प्रतिपादक हो, उसे 'सूक' कहा जाता है। बृहद्देवता में 'सूक्त' शब्द का निर्वाचन इस प्रकार किया गया है- 'सम्पूर्ण ऋषिवाक्यं तु सूक्तमित्यभिधीयते'- अर्थात् सम्पूर्ण ऋषि-वचनोंको 'सूक्त' कहते हैं।
सामान्यतः सूक्त दो प्रकार के माने जाते हैं-
(1) क्षुद्र सूक्त और (2) महासूक। जिन सूकों में कम-से-कम तीन ऋचाएँ हो, उनको 'क्षुद्र सूक्त' कहते हैं तथा जिन सूक्कों में तीन से अधिक ऋचाएं हैं, उन्हें 'महासूक' कहते हैं।
बृह देवता में चार प्रकार के सूक्कों का वर्णन प्राप्त होता है। जैसे- (1) देवता सूक्त, (2) ऋषि सूक, (3) अर्थसूक और (4) छन्द:सूक्त
देयतापर्थछन्दस्तो वैविध्यं च प्रजायते।
ऋषि सूक्तं तु यावन्ति सूक्तान्येकस्य श्रूयन्ते॥
तानि सर्वाणि ऋषेः सूक्तं हि तस्य तत् ।
यावदर्थसमाप्तिः स्यादर्थसूक्तं वदन्ति तत् ॥
वै स्तुतिः समान छन्दसो याः स्युस्तच्छन्दः सूक्तमुच्यते ।
वैविध्यमेवं सूक्तानामिह विद्याद्यथायथम् ॥
अभिप्राय यह कि किसी एक ही देवता की स्तुति में जितने सूक्त पर्यवसित हों, उन्हें 'देवता सूक्त' तथा एक ही ऋषि की स्तुति में जितने सूक्त प्रवृत्त हों, उन्हें 'ऋषि सूक्त' कहा जाता है।
समस्त प्रयोजनों की पूर्ति जिस सूक से होती हो, उसे 'अर्थ सूक्त' कहते हैं और एक ही प्रकार के छंद जिन सूक्तों में प्रयुक्त हों, उन्हें 'छन्दः सूक' कहा जाता है। इस प्रकार मान्य क्रम से सूक्तों के भेदों का परिज्ञान करना चाहिये।
इन सूक्तों के जप एवं पाठ की अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। इनके जप-पाठ से सभी प्रकार के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक क्लेशों से मुक्ति मिलती है। व्यक्ति परम पवित्र हो जाता है और अंतःकरण की शुद्धि होकर पूर्वजन्म की स्मृति को प्राप्त करता हुआ वह जो भी चाहता है, उसे वह मनोभिलषित अनायास ही प्राप्त हो जाता है
एतानि जप्तानि पुनन्ति जन्तूञ्जातिस्मरत्वं लभते यदीच्छेत् ॥
अर्थात इन सूक्तों का जप करने पर ये प्राणियों को पवित्र कर देते हैं, जिससे वह व्यक्ति कुलाग्रणी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
पाठकों की जानकारी के लिये वेद के प्रमुख सूक्तों का अर्थ एवं परिचय यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। वेद के सभी सूक्त महत्त्वपूर्ण हैं। ज्ञान राशि का प्रत्येक कण उपादेय है, ग्राह्य है; परंतु स्थानीय भाव के कारण कुछ प्रमुख सूक्तों की प्रस्तुति ही सम्भव है।
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