Published By:धर्म पुराण डेस्क

ओम अक्षर में ही छिपा है परमात्मा का व्यक्त रूप, उच्चारण मात्र से होगी दिव्य अनुभूति

ओम शब्द में दर्शन, उच्चारण और वचन - भेद कदापि नहीं हो सकता। 

अक्षर- ब्रह्म को व्यक्त करने वाला यह ओंकार अक्षर सदा अपरिवर्तनीय है। प्रणव इसी का प्रतिनिधि है। अव्युत्पन्न ॐ - अ, उ, म इन तीन अक्षरों के मेल से बनता है। यह वर्ण ' उद्गीथ ' में अगणित त्रयी स्थिति का बोधक है। यथा - भू: - भुव: - स्व:, स्थूल - सूक्ष्म- कारण ; जाग्रति - स्वप्न - सुषुप्ति ; ब्रह्मा - विष्णु - महेश ; ऋक् - यजु: - साम ; वैश्वानर - तेजस - प्राज्ञ ; गार्हपत्य अग्नि - दक्षिण अग्नि - आवह्नीय अग्नि ; सूर्य - चन्द्र - अग्नि ; विराट हिरण्यगर्भ - माया देह नाश - निर्माण स्थिति ; जीव - प्रकृति - ब्रह्म आदि। इस प्रकार ओंकार अनंत गुणों और विभूतियों को अपने अंतर्गत समाहित किए हुए है।

इन सबकी विस्तृत चर्चा प्रश्न और छान्दोग्य उपनिषद में हुई है। मांडूक्य उपनिषद इसका आध्यात्मिक रहस्योद्घाटन सर्वथा अनुपम है। ओंकार का अकार मात्र एक स्वर या ध्वनि नहीं है, वरन समस्त ध्वनि जगत का अंतर्भाव करने वाला प्रतीक है। 

गीता में विभूति- वर्णन के समय भगवान कृष्ण यह भी कहते हैं -- "अक्षराणां अकारोस्मि" अर्थात अक्षर में अकार मैं ही हूँ। निश्चय ही इसकी अनुपस्थिति में भाषा- शास्त्र और स्वर- विज्ञानं अपंग एवं मूक स्वर के ही सिद्ध होते हैं। इससे इसकी महत्ता स्पष्टत: विदित हो जाती है। यह महत्व तब और स्पष्ट होता है, जब विभिन्न वर्णों को अकार से पृथक करते हुवे उच्चारण का विफल प्रयास किया जाता है। वस्तुत: वर्ण -विज्ञानं का आदि- मूल 'अकार' है। यह अकार और कुछ नहीं, अपितु 'प्रणव ' में व्यक्त हो रही ईश्वरीय - चेतना की व्यापकता ही है।

'उ' और 'म' इसी अकार के विकसित रूप हैं। इन्हीं तीन ध्वनियों द्वारा सम्पूर्ण नाद जगत का प्रतिनिधित्व होता है। अत: इनके संयुक्त रूप ॐ द्वारा हम उस नाद ब्रह्म एवं शब्द ब्रह्म को जानने, समझने और उसकी अनुभूति करने का प्रयास करते हैं। शब्द आकाश का गुण है। आकाश में इसका निर्माण और विलय - विसर्जन होता रहता है। अध्यात्म की यह सुनिश्चित अवधारणा है कीकि शब्द और अर्थ अन्योन्याश्रित हैं।

नाम - जप का यही रहस्य है, नामोच्चारण से ईश्वर का अनिवार्य स्मरण होता है। इसी को योग दर्शन में आगे स्पष्ट किया गया है 'तज्जपस्त तदर्थ भावनम ' अर्थात नाम-जप से अंत:करण में भगवद भावना उभरने लगती है। इस प्रकार उद्गीथ ॐ मनुष्य और महत चेतना के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने में सेतु का काम करता है। अत: ॐ अक्षर परमात्मा का ही व्यक्त रूप है और वह उसी का प्रकाश है।


 

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