Published By:दिनेश मालवीय

प्रसिद्ध हरिहर मिलन समारोह, भगवान शिव और विष्णु साल में एक बार कहाँ और क्यों मिलते हैं.. दिनेश मालवीय

प्रसिद्ध हरिहर मिलन समारोह, भगवान शिव और विष्णु साल में एक बार कहाँ और क्यों मिलते हैं.. दिनेश मालवीय

 

हरि यानी श्री विष्णु और हर यानी भगवान शंकर. दोनों महान विभूतियां त्रिदेव में शामिल हैं. दोनों की अपनी-अपनी सत्ता और वैभव है और सृष्टि के संचालन में स्पष्ट दायित्व हैं. आइए हम आपको बताते हैं, कि ये दोनों देव साल में एक बार कब,क्यों और कहाँ मिलते हैं. इनका मिलन होता है आध्यात्मिक रहस्यों से भरपूर उज्जैन नगरी में. इसे “हरिहर मिलन” कहा जाता है. हर साल वैकुण्ठ चौदस पर उज्जैन के राजा भगवान महाकाल रात को बारह बजे अपने धाम महाकालेश्वर मंदिर से श्री विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण  से मिलने गोपाल मंदिर आते हैं. इसके बाद सुबह चार बजे महाकाल की भस्म आरती के समय भगवान श्रीकृष्ण शोभायात्रा के साथ श्री महाकालेश्वर से मिलने उनके स्थान पर जाते हैं.

 

पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु जब चार महीने योग निद्रा में लीन रहते हैं, तब उस दौरान सृष्टि के पालन का दायित्व भगवान शिव सम्हालते हैं. देवप्रबोधनी एकादशी को विष्णु जी के जागने पर तीन दिन बाद वैकुण्ठ चौदस को शिवजी फिर से भगवान विष्णु को यह दायित्व सौंपते हैं. प्रतीक रूप से वह उन्हें तुलसी दल भेंट करते हैं.  यह तो इसका लोकार्थ हुआ. लेकिन सनातन धर्म के पर्वों के पीछे एक बहुत सूक्ष्म और सुविचारित अवधारणा होती है. लोक मान्यताएँ अपनी जगह हैं और सामान्य लोगों के समझने के लिए उन्हें इसी रूप में बताया जाता है. इस समारोह के पीछे उद्देश्य शैवों और वैष्णवों के बीच मतभेद को समाप्त करना रहा. एक समय था, जब उज्जैन ही नहीं अन्य स्थानों पर भी शैव और वैष्णवों के बीच कटुता इतनी अधिक हो गयी थी, कि यह शत्रुता की सीमा छूने लगी थी. इसे दूर करने के लिए “हरिहर मिलन” समारोह की आयोजना की गयी.  

 

इस दुर्लभ दृश्य को देखकर अपना जीवन धन्य करने के लिए भक्त पूरे साल बहुत उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं. यह अनूठी परम्परा शैव और वैष्णव मार्ग के समन्वय और परस्पर सौहार्द का भी प्रतीक है. इस दिन पूजा-पाठ, दान और ध्यान का बहुत महत्व है. कहते हैं कि उज्जैन में “हरिहर मिलन” समारोह का आयोजन लगभग 200 वर्ष पहले गोपाल मंदिर के निर्माण के बाद शुरू हुआ. इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण अपने बांके बिहारी स्वरूप में विराजमान हैं. श्री महाकालेश्वर के बाद यह शहर का  दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की पत्नी वायजा बाई ने 1844 में करवाया था. मंदिर के गर्भगृह का रत्नजड़ित चाँदी के द्वार आकर्षण का मुख्य केन्द्र हैं। यह द्वार महादजी सिन्धिया गज़नी से लेकर आये थे. इसे सोमनाथ से महमूद गजनवी लूटकर ले गया था. बाद में  अहमदशाह अब्दाली इसे लाहौर ले गया. एक लंबे संघर्ष के बाद, दरवाज़े बरामद कर गोपाल मंदिर में स्थापित किए गए.

 

यह मंदिर मराठा वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण. यहाँ भगवान की 2 फिट ऊंची चाँदी की मूर्ति प्रतिमा संगमरमर से जड़ी हुई वेदी पर प्रतिष्ठित है. उनके साथ उनकी पटरानी रुक्मणि की प्रतिमा भी है. बांकेबिहारी की ठोड़ी पर असली हीरा जड़ा हुआ है. मंदिर की संरचना इस प्रकार की है कि बाहर सड़क से ही भगवान् के दर्शन हो जाते हैं. हीरे की चमक भी वहीं से दिखाई दे  जाती है.मंदिर में  राधा-रुक्मिणी व भगवान गोपालकृष्ण की नित्य पूजा अर्चना होती है। रात को आठ बजे शयन आरती के बाद पूजा वाली प्रतिमा को चांदी के रथ में विराजित कर मंदिर के दायीं ओर बने शयन कक्ष शयन के लिए ले जाया जाता है. मंदिर में भगवान द्वारकाधीश के साथ ही  भगवान शंकर और उनकी अर्धांगनी पार्वती तथा श्री विष्णु के वाहन गरुड़ की मूर्तियां भी हैं.

 

इस मंदिर में कान्हा के जन्म के बाद पाँच दिन तक शयन उनकी आरती नहीं होती.  जन्माष्टमी से बछ बारस तक भगवान गर्भगृह में ही रहते हैं. वह पाँच दिन तक शयन नहीं करते. पांच दिन तक सेवा पूजा के बाद बछ बारस पर दोपहर 12 बजे शयन आरती होती है. इसके पीछे मान्यता है कि जन्म के बाद भगवान बाल्यावस्था में होते हैं और बालक के जागने व सोने का समय निश्चित नहीं रहता है। लिहाजा निर्धारित समय पर शयन आरती नहीं की जा सकती है। पांच दिन तक बाल गोपाल से लाड़ लड़ाए जाते हैं। उन्हें दूध, माखन आदि का नियमित भोग लगाया जाता है। मान्यता के अनुसार बछबारस पर भगवान बड़े हो जाते हैं। इस दिन सुबह अभिषेक पूजन के बाद उन्हें चांदी की पादुका पहनाई जाती है। इसके बाद भगवान मंदिर के मुख्य द्वार पर बांधी गई माखन मटकी फोड़ते हैं. दोपहर में शयन आरती होती है. साल में एक बार यह अवसर आता है, जब दिन में भगवान की शयन आरती की जाती है.

 

मंदिर के दर्शन कक्ष में हर स्तम्भ पर बड़े दर्पण लगे हैं. इसका कारण पूछने पर पुजारी ने बताया कि जिस प्रकार हम अपने बुजुर्गों से मिलने जाने के लिए दर्पण में अपना हुलिया देखते हैं, उसी प्रकार भक्त भी भगवान के सामने जाने से पहले अपने आपको परखता है.  मंदिर का शिखर सफ़ेद संगमरमर तथा शेष मंदिर सुन्दर काले पत्थरों से निर्मित है। मंदिर का प्रांगण और परिक्रमा पथ भव्य और विशाल मंदिर के विशाल स्तंभ और खूबसूरत सुंदर नक्काशी पर नजर ठहर जाती है. मंदिर के आस-पास विशाल प्रांगण में सिंहस्थ या अन्य पर्व के दौरान बाहर से आने वाले लोग विश्राम करते हैं। मंदिर के सामने चौक में उज्जैन का सबसे बड़ा बाजार है, जहाँ अन्य चीजों के साथ पूजा-पाठ तथा धार्मिक पुस्तकों की दुकानें हैं. पास में ही सराफा और बर्तन बाजार है. यह बाजार सुबह से रात तक गुलजार रहता है. कैसे पहुँचें : सड़क मार्ग: मध्यप्रदेश के इंदौर से लगभग 60 किलोमीटर दूर उज्जैन हिंदुओं का विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं। इंदौर बस स्टैंड से बस द्वारा उज्जैन पहुँचा जा सकता है। रेल मार्ग: तीर्थ स्थल उज्जैन का रेलवे स्टेशन देश के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों ।

 

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