चित्त जीवों के प्रति द्वेष, तिरस्कार व वैर-विरोध की जो ग्रन्थियाँ है, उन्हें क्षमा और मैत्रीभाव के अभ्यास के द्वारा हटा देनी चाहिये।
* कहे जाने वाले सांसारिक सुख एवं उनकी सामग्री के प्रति जो राग है... आसक्ति का बंधन है, उसे अनित्य व अशरणादि भावनाओं के द्वारा हटाकर, चित्त को वैराग्यवासित बनाना चाहिये।
* "अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा है वह सब परमात्मा की कृपा का फल है" - ऐसा मानकर उनका परोपकारार्थ सदुपयोग करना चाहिये, चूंकि “मेरा आत्महित प्रभु की आज्ञानुसार परोपकार करने से ही है" - ऐसी आस्था (श्रद्धा) के साथ स्वोपकारलक्षी परोपकार करने से जीवनमें तीव्रता से विकास की ओर आगे कदम बढ़ा - सकते हैं।
पूर्णगुणी परमात्मा की उपासना उपासक को पूर्ण बनाती ही है। पूर्णता प्राप्ति के परम ध्येयपूर्वक परमात्मा के संग अतूट प्रेम का - चित्त में अभ्यास करने से, अपूर्ण पदार्थों का प्रेम हटता जाता है। पूर्ण का प्रेम जब प्रकार्षता को छूता है तब अपूर्ण अपूर्ण नहीं रह सकता...... वह पूर्ण बन जाता है।
ये अभ्यास आपको मानसिक शांति, आध्यात्मिक सामर्थ्य, और आनंद की दिशा में मदद कर सकते हैं।
चित्त की एकाग्रता (Concentration of Mind): चित्त की एकाग्रता हेतु व्यायाम और ध्यान जैसे योगाभ्यास कर सकते हैं। योग से मन को शांति प्राप्त होती है और उसकी एकाग्रता बढ़ती है.
वैराग्य (Detachment): यह अभ्यास आपको सांसारिक सुखों और विषयों के प्रति आसक्ति से मुक्ति दिलाता है। यह आपके जीवन को आध्यात्मिकता की दिशा में मोड़ सकता है.
सेवा भाव (Service): अपने साथी मनुष्यों की मदद करने और सेवा करने से आप आत्मा को सदुपयोग का अभ्यास कर सकते हैं।
पूर्णगुणी परमात्मा की उपासना (Worship of the Supreme Being): यह उपासना आपके चित्त को पूर्णता और प्रेम की ओर मोड़ सकती है और आपके आत्मिक विकास को प्रोत्साहित कर सकती है.
ये अभ्यास आपके आत्मा के विकास के दिशा में मदद कर सकते हैं और आपके जीवन को सार्थक और प्राणी बना सकते हैं। यदि आप इन अभ्यासों को नियमित रूप से करते हैं, तो यह आपके आध्यात्मिक यात्रा में मदद कर सकते हैं और आपको आंतरिक शांति और साक्षरता का अनुभव करने में मदद कर सकते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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