Published By:धर्म पुराण डेस्क

संत का स्वरूप ….

जो भगवान का स्वरूप है वही संत का स्वरूप है। 

संत का कोई लक्षण नहीं बतलाया जा सकता। जिसमें सब है, जो सब है, जो सबसे अलग है और जिसमें सबका अत्यन्ताभाव है वही संत है। उसे ब्रह्म कहो, ईश्वर कहो, जगत् कहो अथवा संत कहो, एक ही बात है। 

व्यवहार में जिसे संत कहते हैं वह केवल उसका प्रतीक है। जिस प्रकार प्रतिमा में भगवद्भाव किया जाता है उसी प्रकार गुरु और महात्माओं में भी संतत्व की भावना की जाती है, किन्तु उपासक की यह भावना परमार्थतः उसका स्वरूप है; व्यवहार में उसमें सच्चिदानन्द की भावना की जाती है और परमार्थतः वही उसका स्वरूप है।

संतत्व की प्राप्ति का प्रधान साधु संतों की उपासना है। संत की उपासना भगवान की उपासना है। संत के गुण-दोष देखना उसका अपमान करना है। 

किसी भी प्रकार के आचरणों से संत की पहचान नहीं हो सकती। संत के संप्रदाय या बाह्य वेशपर दृष्टि नहीं देनी चाहिए, उसके हृदय को देखना चाहिये। 

संतों की परीक्षा करना बड़े दुस्साहस का काम है। किन्हीं-किन्हीं महात्माओं के बाह्य व्यवहार बहुत घृणित और उपेक्षणीय देखा जाता है; परन्तु उनके भीतर जो दिव्य तपोबल रहता है उससे सैकड़ों-हजारों पुरुष अकारण ही उनकी ओर आकर्षित होते रहते हैं। 

उनकी परीक्षा कोई कैसे कर सकता हैं ? संतों के आचरण के विषय में यह प्रसिद्ध है- 

क्वचिच्छिष्टाः क्वचिद्भ्रष्टाः क्वचिद्भूतपिशाचवत् ।

नाना रूप धरा योगी विचरन्ति महीतले ॥' 

किसी विशेष सम्प्रदाय में ही संत होते हों- ऐसी बात नहीं है।

इसी प्रकार किसी विशेष देश या विशेष काल से भी संतों का संकोच नहीं किया जा सकता। सभी देशों में सभी समय कोई-न-कोई सच्चे संत विद्यमान रहते ही हैं। संत ही समाज के जीवन है, कोई भी संत जनशून्य समाज जीवित नहीं रह सकता।

व्यवहार की दृष्टि से संतों को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है। आचार्य कोटि और अवधूत कोटि । 

अवधूत कोटि के संतों के आचरण और उपदेश सर्वदा सबके लिए अनुकरणीय नहीं होते। कोई विरले पुरुष ही उन्हें पहचान पाते हैं। परंतु उनका बाह्य आचरण आदर्श न होने पर भी होते वे संत ही हैं। उनसे किसी प्रकार का द्वेष नहीं करना चाहिये। 

हाँ, संतत्व प्राप्ति के लिये अनुकरण आचार्य कोटि के संतों का ही करना चाहिये। उनके आचरण के विषय में ऐसा कहा गया है- 

सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः ।

निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ 

अर्थात जिनमें निरपेक्षता, भगवत्परायणता, शान्ति, समदृष्टि, निर्ममत्व, अहंकार शून्यता, द्वन्द्व हीनता और निष्परिग्रह आदि गुण रहते हैं वे संत हैं। 

जब तक ये गुण प्राप्त न हों तब तक अपने को संत नहीं समझना चाहिये। किन्तु इन गुणों का संत को स्वयं ही अनुभव हो सकता है|

कोई अन्य व्यक्ति किसी प्रकार की परीक्षा करके इनका पता नहीं लगा सकता। अतः सबको इन गुणों के उपार्जन का यथासाध्य प्रयत्न करना चाहिये।

उड़िया बाबा जी के विचार ..


 

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