अन्य ग्रन्थ तो प्रायः यह कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्याग कर साधु हो जाओ, एकांत में चले जाओ; क्योंकि व्यवहार और परमार्थ- दोनों एक साथ नहीं चल सकते।
परन्तु गीता कहती है कि आप जहां हैं, जिस मत को मानते हैं, जिस सिद्धांत को मानते हैं, जिस धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, आश्रम आदि को मानते हैं, उसी को मानते हुए गीता के अनुसार चलो तो कल्याण हो जाएगा।
एकांत में रहकर वर्षों तक साधना करने पर ऋषि-मुनियों को जिस तत्त्व की प्राप्ति होती थी, उसी तत्त्व की प्राप्ति गीता के अनुसार व्यवहार करते हुए हो जाएगी। सिद्धि-असिद्धि में सम रहकर निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य कर्म करना ही गीता के अनुसार व्यवहार करना है।
युद्ध से बढ़कर घोर परिस्थिति तथा प्रवृत्ति और क्या होगी? जब युद्ध जैसी घोर परिस्थिति और प्रवृत्ति में भी मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, तो फिर ऐसी कौन-सी परिस्थिति तथा प्रवृत्ति होगी, जिसमें रहते हुए मनुष्य अपना कल्याण न कर सके ?
गीता के अनुसार एकांत में आसन लगाकर ध्यान करने से भी कल्याण हो सकता है और युद्ध करने से भी कल्याण हो सकता है!
अर्जुन न तो स्वर्ग चाहते थे और न राज्य चाहते थे। वे केवल युद्ध से होने वाले पाप से बचना चाहते थे इसलिये भगवान मानो यह कहते हैं कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता, पर पाप से बचना चाहता है तो युद्ध रूप कर्तव्य को समता पूर्वक कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा- नैवं पापमवाप्स्यसि ।' कारण कि पाप लगने में हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत विषमता (पक्षपात), कामना, स्वार्थ, अहंकार है। युद्ध तो तेरा कर्तव्य (धर्म) है। कर्तव्य न करने से और अकर्तव्य करने से ही पाप लगता है।
पूर्व श्लोक में भगवान ने अर्जुन से मानो यह कहा कि अगर तू राज्य तथा स्वर्ग की प्राप्ति चाहे तो भी तेरे लिये कर्तव्य का पालन करना ही उचित है, और इस श्लोक मानो यह कहते हैं कि अगर तू राज्य तथा स्वर्ग की प्राप्ति न चाहे तो भी तेरे लिये समता पूर्वक कर्तव्य का पालन करना ही उचित है। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का त्याग किसी भी स्थिति में उचित नहीं है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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