Published By:बजरंग लाल शर्मा

विक्रम विश्वविद्यालय का गौरवशाली इतिहास ….

विक्रमशिला विश्वविद्यालय भारत के तीसरे विश्वविद्यालय विक्रमशिला के स्थान के विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत होते हुए भी बहुत से तिब्बती बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद के बाद, उसके आधार पर वर्तमान भागलपुर जिले के सुल्तानगंज को 'विक्रमशिला' निश्चित किया गया है।

इस विश्वविद्यालय के चारों ओर चार तोरण थे । हर एक प्रवेशद्वार पर एक-एक प्रवेशिका परीक्षा गृह था। इन सभी द्वारों पर एक-एक दिग्गज विद्वान् थे। जो प्रवेशार्थी यहां पढ़ने आते थे, उन्हें पहले इन्हीं द्वारस्थ पंडितों को परीक्षा में संतुष्ट करना पड़ता था।

अध्यापन-विभाग में रत्नवज्र, लीलावज्र, कृष्णसमरवज्र, तथा गतरक्षित, दीपंकर श्रीज्ञान, बोधि भद्र, कमल रक्षित और नरेंद्र श्रीज्ञान — ये आठ महापंडित और 108 पण्डित थे। आचार्य 'दीपंकर श्रीज्ञान' थे। इस विश्वविद्यालय में धर्म, साहित्य, दर्शन, न्याय आदि के अतिरिक्त विशेष रूप से मंत्रशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। 

नालंदा - जैसे प्राचीन तथा विक्रमशिला-जैसे नवीन विश्वविद्यालयों में तंत्रशास्त्र की ही प्रधानता थी। यहाँ के महापण्डितों में मैत्री या डोम्बीया, स्मृत्याकर आदि 'सिद्ध' ही थे ।

विक्रमशिला में भारतीय छात्रों के अतिरिक्त बहुत से विदेशी छात्र भी विद्याध्ययन के लिए आते थे। छात्रों के निवास एवं भोजनादिका प्रबंधन विश्वविद्यालय की ओर से ही था ।

दीपंकर श्रीज्ञान के समय में यहां के संघ स्थविर ‘रत्नाकर' थे। बिहार के मध्य में 'बोधिसत्व' की मूर्ति थी। सैकड़ों तांत्रिक देवालय थे । विदेशी छात्रों को विशेष सुविधा प्राप्त थी।

सन् 1193 ईस्वी में पालवंशी राजाओं के अध:पतन के साथ-साथ ये विश्वविद्यालय भी सदा के लिये अंधकार में विलीन हो गये। विजय-मदान्ध मुसलमानों ने मोहम्मद बिन-अख्तियार के नेतृत्व में गोविंद पाल को मारकर नालंदा और विक्रमशिला को खूब लूटा। 

हजारों विद्यार्थी और अध्यापक तलवार के घाट उतारे गये! विजेताओं ने लगभग दो हजार वर्ष के पुराने धर्म और भारतीय सभ्यता को इस बर्बरता से नष्ट किया कि पुनः उसका उद्धार न हो सका!!


 

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