Published By:धर्म पुराण डेस्क

प्रातः स्नान की महिमा ..

प्रातः स्नान से पापों का विनाश होता है। प्रात:काल स्नान करने के अनन्तर ही मनुष्य शुद्ध होकर जप- प-पूजा-पाठ आदि समस्त कर्म करने का अधिकारी बनता है; क्योंकि बिना स्नान के ये कर्म नहीं किये जाते। 

नौ छिद्रों वाले अत्यंत मलिन शरीर से दिन-रात मल निकलता रहता है, अतः प्रात:काल स्नान करने से शरीर की शुद्धि होती है। रात में सुषुप्तावस्था में मुख से अपवित्र लार आदि पदार्थ निकलते रहते हैं, अतः बिना स्नान किये कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये। 

प्रातः काल स्नान करने से अलक्ष्मी, दौर्भाग्य, दुःस्वप्न तथा बुरे विचारों के साथ ही सभी पापों का विनाश भी हो जाता है, और बिना स्नान किये वह आगे के कार्यों के लिये प्रशस्त भी नहीं होता, इसलिए प्रातः स्नान की विशेष महिमा है -

प्रातःस्नानेन पूयन्ते सर्वपापान्न संशयः । 

न हि स्नानं विना पुंसां प्राशस्त्यं कर्मसु स्मृतम् ॥

अशक्तावस्था में स्नान की विधि:- स्नान करने में असमर्थ होने पर सिरके नीचे से स्नान करना चाहिये अथवा गीले वस्त्र से सारे शरीर को भली भांति पोंछ लेना चाहिये या मार्जन (अपने ऊपर जल छिड़कना)-से भी स्नान की विधि पूरी हो जाती है- ऐसा महर्षि कपिल जी का अभिमत है। 

अशक्तावस्था में ब्राम्य आदि मन्त्र स्नान भी प्रशस्त हैं- 

अशक्तोऽवशिरस्कं वा स्नानमात्रं विधीयते । 

आर्द्रेण वाससा चाङ्गमार्जनं कापिलं स्मृतम् ।  

ब्राह्म्यादीन्यथवाशक्तौ स्नानान्याहुर्मनीषिणः ।

सात प्रकार के स्नान:

यद्यपि शुद्ध जल से स्नान करना सामान्य स्नान है, तथापि धर्म शास्त्रों में स्नान के अनेक भेद बतलाये गये हैं। लघु व्यास स्मृति में बतलाया गया है कि (1) ब्राह्म, (2) आग्रेय, (3) वायव्य, (4) दिव्य, (5) वारुण, (6) मानस तथा (7) यौगिक-ये सात प्रकार के स्नान होते हैं।

कुशाओं के द्वारा 'आपो हिष्ठा' इत्यादि मंत्रों का उच्चारण करते हुए अपने ऊपर जल से मार्जन करना 'ब्राह्म-स्नान' कहलाता है। समस्त शरीर में भस्म लगाना 'आग्रेय-स्नान' है। चूँकि भस्म अग्निजन्य है, अत्यन्त पवित्र है, इसलिये यह अग्नि-सम्बन्धी स्नान 'आग्नेय स्नान' कहलाता है। 

गाय के खुर की धूलि अत्यंत पवित्र है, उसकी अनन्त महिमा है। अतः उस धूलिको पूरे शरीर में लगाना 'वायव्य-स्नान' है।

वायु द्वारा अथवा उड़ायी गयी गोधूलि के शरीर में पड़ जाना भी एक प्रकार का 'वायव्य-स्नान' ही है। इसमें वायु का विशेष योग रहता है, इसलिये इसकी संज्ञा वायव्य है। 

सूर्यकिरण में वर्षा के जल से स्नान करना 'दिव्य-स्नान' है। जल में डुबकी लगाकर स्नान करना 'वारुणी-स्नान' है।

आत्मज्ञान 'मानस स्नान' है और भगवान विष्णु का चिंतन करते रहना यह योगरूप 'यौगिक स्नान' है ।


 

धर्म जगत

SEE MORE...........