Published By:अतुल विनोद

शक्ति का महाविज्ञान --जागरण और साक्षात्कार …. अतुल विनोद 

पत्थर भी उर्जा का ही संघनित रूप है| पत्थर जड़(inanimate,निर्जीव,निष्प्राण,प्राणहीन,बेजान,मृत,अचेतन) दिखाई देता है, ऐसा लगता है कि पत्थर में उर्जा नहीं है लेकिन पत्थर का मूल (परमाणु) उर्जा से ही बना है| उसका चेतनतत्व इतना कम क्रियाशील है कि वो हमे बेजान नज़र आता है| 

उसमे शक्ति है लेकिन वो स्थिर शक्ति है| किसी को पत्थर मारो तो उसकी शक्ति का अहसास होता है| चेतन तत्व की अक्रियता के कारण वो निर्जीव लगता है लेकिन उसमें भी जान(स्थितिज उर्जा) है माने या न माने|  शक्ति के कई प्रकार हैं|  ईश्वर चैतन्यघन है और शक्ति उसकी प्रकृति(नेचर), उसकी इस शक्ति(उर्जा) के अलग अलग स्तर पर जुड़ने से अलग अलग पदार्थ बनते हैं| कुछ पिंडों में परमाणुओं का कंबीनेशन ऐसा  ऊर्जा तंत्र बनाता है जो  ईश्वरीय चेतना को अधिक  व्यक्त करता है  ऐसा  पिंड अधिक चेतन दिखाई देता है जैसा कि मनुष्य  | 

कुछ  पिंडों में परमाणुओं का  संयोजन इस तरह होता है जिससे ईश्वरीय चेतना की अभिव्यक्ति ना के बराबर होती है| जिससे वो जड़(निर्जीव) नजर आता है|मानव का ऊर्जा परिपथ,  ईश्वरीय ऊर्जा परिपथ के अत्यधिक करीब है|  इसलिए उसके अंदर ईश्वर सबसे अधिक व्यक्त होता है|  मानव की संरचना परमात्मा को अच्छी तरह रिप्रेजेंट करती है| मानव में ईश्वर का पुरुष तत्व और प्रकृति रूपी  भौतिक तत्वों का  कंबीनेशन ही उसे श्रेष्ठ संरचना बनाता है| 

जहाँ ऐश्वर्य है वहाँ ईश्वर है|  इस दुनिया में मौजूद हर वस्तु की अपनी एक अलग उर्जा है, मानव इस उर्जा को जितना अच्छी तरह समझता और उपयोग करता है वो  ज्यादा शक्तिशाली कहलाता है| इसी ऊर्जा को समझ कर हमने मशीन और टेक्नोलॉजी  विकसित की है|  तकनीकी के कारण ही हम कम समय में ज्यादा काम कर पा रहे हैं और अच्छी तरह जिंदगी जी पा रहे हैं| 

हिंदू संप्रदाय शक्ति का उपासक है क्योंकि  शक्ति ही संसार का संचालन करती है| शक्ति संग्रह का मतलब साधन और संसाधनों की फौज खड़ा करना ही नहीं है|  स्वामी विद्यानंद कहते हैं कि फूस की झोपड़ी में बैठकर पत्ते पर रुखा सूखा टुकड़ा खाता हुआ सामान्य मनुष्य, शक्ति के उस  स्वरूप का अनुभव कर सकता है जो महलों में बैठा व्यक्ति नहीं कर सकता|  जरूरी नहीं कि महल में बैठकर शक्ति का अनुभव नहीं किया जा सकता, लेकिन शक्ति के अनुभव के लिए महल कोई मायने नहीं रखता| सामान्य मनुष्य भौतिक शक्तियां, चीजों को जुटाकर अर्जित करना चाहता है| 

किसी को धन से शक्ति का अनुभव होता है तो किसी को आसपास खड़े अर्दलियों से| किसी को पिस्टल से ताकत मिलती है तो किसी को पोस्ट से| आध्यात्मिक व्यक्ति, शक्ति का अपने अंदर अनुभव करता है| लंबे समय से ये डिबेट होती रही है कि बाहर के संसाधनों की शक्ति जरूरी है या अंदर की शक्ति| 

यदि हम बाहर की चीजों से शक्तियां हासिल करने के लिए उन्हें इकट्ठा करते रहे तो एक  दिन उनके बोझ तले दब जाएंगे| चीजें, रिश्ते, धन, वैभव, पोस्ट का बोझ अक्सर हमारी आंतरिक शक्ति से ज्यादा हो जाता है| आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति कहती है कि ना तो बहुत ज्यादा इकट्ठा करो नाही सबका त्याग करो बस सही इस्तेमाल करना सीखो| जब तक शक्ति का असल ज्ञान नहीं मिलेगा तब तक मनुष्य भटकता रहेगा| शक्ति तत्व का अनुभव करते ही भटकाव खत्म हो जाता है| 

सही मायने में आंतरिक शक्ति  का जागरण ही भ्रम को तोड़ सकता है क्योंकि वो शक्ति बुद्धिमान है और वो आपको  संग्रह और त्याग के बीच के संतुलित रास्ते पर चलाने में काबिल है| कहना आसान है कि इंद्रियों पर अधिकार हासिल करो, लेकिन बिना शक्ति की सहायता के इंद्रियों पर अधिकार नहीं किया जा सकता| शक्ति अधिकार करना नहीं सिखाती बल्कि इंद्रियों का इस्तेमाल करना सिखाती है| इंद्रिया तो आपके अधिकार में ही है, आपकी कार आपके अधिकार में है यदि आप ड्राइविंग न जाने तो आप उस पर कंट्रोल नहीं कर सकते| शक्ति हर जगह मौजूद है| पापियों के घर में वो दरिद्रता के रूप में, विद्वानों के हृदय में बुद्धि के रूप में, सज्जनों के मन में श्रद्धा बनकर और कुलीनो में लज्जा के रूप में निवास करती है| 

पुराने समय से शक्ति का उपयोग और दुरुपयोग होता चला आया है|  देवता और असुरों के संग्राम का कारण भी शक्ति ही है| शक्ति के अलग अलग रूपों में भी जड़ और चेतन का स्तर अलग अलग होता है| जो शक्ति जड़-रूप है वो आपको हैवान बना सकती है और जो शक्ति ईश्वरीय अनुग्रह और चेतना के साथ मिलती है वो आपको देवता बना सकती है|अहंकार से हासिल की गयी शक्ति जड़रूप हो जाती है, वो आपको अपने सदुपयोग और दुरुपयोग के लिए गाइड नहीं करती| विनम्रता, योग, गुरु कृपा, अनुग्रह और सत कर्मों से हासिल की गई शक्ति गुरु- मात्र रूप बन जाती है| माता ही पहला गुरु है| 

ये शक्ति माता बन कर गुरु रूप में पल-पल पर मार्गदर्शन करती है, अपने उपयोग का तरीका भी खुद ही बताती है| भारतीय धर्म दर्शन शक्ति को माता के रूप में देखता है| मां के रूप में मिली हुई शक्ति कभी भी नीचे नहीं ले जाती | मां कैसे अपने बच्चे का पतन देख सकती है इसलिए वो अपनी शक्ति से बेटे का लालन-पालन करने के साथ ही उसे सही मार्ग भी दिखाती है| शक्ति को पूरी तरह जड़ मानना मनुष्य  की सबसे बड़ी भूल होती है| भ्रम के कारण वो जड़ नज़र आती है लेकिन बुद्धि खुल जाए तो पत्थर में भी ईश्वरीय चेतना दिखने लगती है| मनुष्य समझता है कि शक्ति  के पास कोई बुद्धिमत्ता नहीं|  

और वो उसे किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकता है तब  शक्ति भी उससे जड़ रूप में ही व्यवहार करती है| सब कुछ जानते हुए भी वो आपके कर्म और संस्कार के कारण निर्जीव व्यवहार करती है| शक्ति को निर्जीव मानकर उसका दुरुपयोग करने वाला व्यक्ति एक दिन बहुत गहरे गड्ढे में गिरता है शक्ति शिव से अलग नहीं है बल्कि संसार को रचने और चलाने के लिए उसी से पैदा हुई प्रकृति है| अंदर शिव तत्व ही है लेकिन बाहर स्थूल प्रकृति ही नज़र आती है| जो भौतिकवादी है उसके लिए शिव की शक्ति जड़ है, जो अध्यात्मवादी हैं उनके लिए ये अनिर्वचनीय है और जो मुक्त हैं उनके लिए ये शिव ही है|  

इसका मतलब है सामान्य व्यक्ति में यह अनेक प्रकार की है, आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए एक ही है, लेकिन अनेक रूप में विभाजित हो जाती है, और जो अध्यात्म के रास्ते पर चलकर मोक्ष की अवस्था में पहुंच गए हैं उनके लिए यह स्वयं साक्षात ईश्वर ही है, क्योंकि इस अवस्था में कुछ रहता ही नहीं सिर्फ एकमात्र परमात्मा ही रहता है| दुनिया की शुरुआत से लेकर अब तक शक्ति के रूप का ठीक-ठीक वर्णन कोई भी विद्वान नहीं कर पाया| अध्यात्म वादियों ने उस एक शक्ति के अलग-अलग रूपों के अलग-अलग तरह के वर्णन किये, अलग-अलग तरह के स्वरूप और साधना निर्मित की| जो मोक्ष को प्राप्त हो गया जिसने शक्ति का अद्वेत स्वरूप देख लिया वो उसका वर्णन कैसे कर सकता है| 

शक्ति को जानकर भी उसका वर्णन नही किया जा सकता| शब्द और लेखनी छोटे पड़ जाते हैं| वो सिर्फ अनुभूति का विषय है| वर्णन हमेशा अधुरा ही होता है| क्या हिल स्टेशन की यात्रा का अनुभव उसके यात्रा वृत्तान्त से किया जा सकता है? अन्तरिक्ष यात्री का लिखा ५०० शब्दों का आर्टीकल उसकी यात्रा के अनुभव के बराबर नही हो सकता| ऐसे ही अध्यात्मिक यात्री का लिखा लेख सिर्फ अनुभवों का संकेत दे सकते हैं|  “शिव” साक्षी है वह ना तो करते हैं ना भोगते हैं| उनसे उत्पन्न यह शक्ति ही सृजन करती है यही बदलती है, यही मिटती है, यही मिटाती है, यही रचती है और यही संहार करती है| जैसे सूर्य इस धरती के हर कार्य का आधार है| जीवन भी उसी से है| वायुमंडल भी उसी से है| निर्माण भी उसी से है| 

सृजन और संहार भी उसी से है| सारे कार्यों का आधार होने के बावजूद भी सूर्य उनसे निर्लिप्त है| उसी तरह शिव है, जो परम सूर्य है, जिनके कारण यह पूरी सृष्टि है, लेकिन सृष्टि का कारक होते हुए भी, व्याप्त होते हुए भी वह निर्लिप्त हैं, निरंजन है, अद्वितीय हैं| उनकी ये शक्ति ही इच्छा, ज्ञान और क्रिया है| 

इसलिए हम सब उस शक्ति का ध्यान और भजन करते हैं| यदि शक्ति ना हो तो शक्तिहीन शिव हमारे किस काम के? शक्ति के कारण ही शिव “शिव” है, ईश्वर हैं, परमेश्वर हैं, शक्ति ही भक्ति है, शक्ति ही ज्ञान है, , शक्ति ही अज्ञान है, शक्ति ही आत्मविद्या है| शक्ति ही ब्रह्म बनकर रचती है, पालन के लिए हरि विष्णु बन जाती है और संहार के समय रूद्र बन जाती है|  भौतिकवादी लोग इस शक्ति का निचले स्तर के स्वरुप का अनुभव करते हैं, अध्यात्मिक साधक को उन्नति करते हुए इसके उच्चतम स्वरुप कुण्डलिनी का साक्षात्कार होने लगता है| 

अपनी पूर्ण अवस्था में जागृत शक्ति ही अपनी माया के पर्दे को हटाते हुए, मनुष्य के शरीर के पंच कोशों का अनावरण करते हुए, ब्रह्मा विष्णु और रुद्र ग्रंथि को खोलते हुए, चक्रों को भेदते  हुए अपने शिव स्वरूप का दर्शन करा देती  है| इसे ही आत्म साक्षात्कार करते हैं|  यही सहस्त्रार दर्शन है|  यही शक्ति और शिव का मिलन है| यही महायोग, सिद्धयोग, महासिद्ध्योग, परमयोग है  यही आत्मदर्शन है यही आत्म स्थिति है|   

 

धर्म जगत

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