Published By:धर्म पुराण डेस्क

जीवन में समता का महत्व, समता सबसे बड़ी चीज है समता से जीवन मरण के महान भय से भी रक्षा हो जाती है

जीवन में समता का बहुत महत्व है। यह बात भगवान श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम से हमें बताई है। 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि समता से युक्त मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है। समता शुरू भर हो जाए। समता की जिज्ञासा हो जाए तो फिर यह शुरुआत कभी खत्म नहीं होती और मनुष्य एक न एक दिन समता प्राप्त कर ही लेता है। 

समता का उद्देश्य मात्र पर्याप्त है और यह कल्याण करता है समता के अनुष्ठान का कभी उल्टा फल नहीं होता।

समता- संबंधी विशेष बात ..

लोगों के भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगने से ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम राम करने से क्या लाभ? परन्तु गीता की दृष्टि में मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। 

गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जाएं और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।

समता दो तरह की होती है- अन्तःकरण की समता और स्वरूप की समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मा में जो स्थित हो गया, उसने संसार मात्र पर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से होती है। 

अन्तःकरण की समता है सिद्धि-असिद्धि में सम रहना, प्रशंसा हो जाए या निन्दा हो जाये, कार्य सफल हो जाए या असफल हो जाए, लाखों रुपये आ जाये या लाखों रुपये चले जाये पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो| इस समता का कभी नाश नहीं होता। कल्याण के सिवा इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं।

स्वामी रामसुखदास कहते हैं। मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते करते अन्तःकरण में थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। 

इसलिये साधन में समता जितनी ऊँची चीज है, मन की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होने से सिद्धियां तो प्राप्त हो जाती हैं, पर कल्याण नहीं होता परन्तु समता आने से मनुष्य संसार-बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।

(1). 'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' - समता के द्वारा मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। 

(2). 'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति'- इसके आरम्भ का भी नाश नहीं होता ।

(3). 'प्रत्यवायो न विद्यते'- इसके अनुष्ठान का उलटा फल भी नहीं होता ।

(4). 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'- इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरण रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।


 

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