 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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मन अनेक पदार्थों का ज्ञान न करके एक ही क्षण में एक ही विषय का ज्ञान प्राप्त करता|
शरीर के साथ परमात्मा ने एक उपकरण लगा दिया है, उसे मन कहते हैं। मन है तो एक पर कार्य-विधि से उसके चार रूप हैं। जब वह किसी वस्तु का मनन करता है तो वह मन है। चिंतन करता है तो वह चित्त है। जब वह मन - मेरा करता है तो वह अहंकार है, तथा जब वह किसी वस्तु का निश्चय करता है तो वह बुद्धि है।
शरीर के अन्दर होने वाला एक ही उपकरण, जिसके चार नाम हैं - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, शरीर के अन्दर स्थित होने के कारण इसे अंत: करण कहा जाता है। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ बाहरी पदार्थों का ज्ञान कराती हैं, अत: ये बाहरी उपकरण हैं। मन का स्वरूप और लक्षण यह है कि मन अनेक पदार्थों का ज्ञान न करके एक ही क्षण में एक ही विषय का ज्ञान प्राप्त करता है।
जैसे एक व्यक्ति खीरा खा रहा है। खीरे में रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श ये पाँचों गुण हैं। पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जिस क्षण हम खीरे के हरे रूप को देखते हैं उसी क्षण रस का अनुभव नहीं करते; जब रस का अनुभव करते हैं तो गंध का अनुभव नहीं करते; जब गंध का अनुभव करते हैं तो दांतों से खीरा चबाते समय जो कट-कट की आवाज होती है तो उसे नहीं सुनते और जब खीरे के कोमल एवं ठन्डे स्पर्श का अनुभव होता है तो अन्य किसी विषय का अनुभव नहीं करते। इन पांचों विषयों का जो अनुभव होता है, उसका क्षण अत्यंत सूक्ष्म होता है।
मन बहुत- बहुत जल्दी बदलता रहता है, अत: रूप, रस, गंध आदि के ज्ञान के क्षण भिन्न-भिन्न हैं और वे क्षण इतने सूक्ष्म हैं कि हमें प्रतीत होता है कि हम एक साथ ही सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त कर रहें हैं। महर्षि पतंजलि ने मन को जल्दी बदलने वाला बताया है - "क्षिप्र परिणामी चित्तमित्युक्तम" अर्थात मनुष्य का मन बहुत जल्दी बदलने वाला है। इसमें अनेक विचार और तरंगें उत्पन्न होती रहती हैं।
ऊपर से प्रतीत होता है कि हम बड़ी शांति में बैठे हुवे हैं, पर अन्दर से मन इतना दौड़ता है कि हम शरीर से भी उतना नहीं दौड़ नहीं पाते, जितना मन से दौड़ रहे हैं। यदि हम प्रयत्न करें तो जिस क्षण जो कर्म करे, मन वहां रह सकता है।
एक बार एक संत से पूछा गया कि वे कौन सी साधना करते हैं? तो उन्होंने कहा कि - 'मेरी बात पर विश्वास करो; मैं कोई विशेष साधना नहीं करता। मैं जिस क्षण जो कुछ भी करता हूँ, मेरे मन की सम्पूर्ण शक्ति वहां एकाग्र होती है। दूसरे लोग ऐसा नहीं कर पाते।
सामान्य लोग जब सोते हैं, तो तकिए पर सिर रख कर लेटे तो रहते हैं, पर उन्हें अनेक प्रकार की चिंताएं सताती रहती हैं, उन्हें तत्काल नींद नहीं आती। जब वे टहलने निकलते हैं तो अनेक प्रकार के विचार उन्हें चिंतित करते रहते हैं। उनका मन किसी भी क्रिया में एकाग्र नहीं हो पता।
जब वे भोजन करते हैं, तो भोजन होता रहता है, पर भोजन करने वाला वहां नहीं होता। यंत्र के समान शरीर काम करता रहता है, पर मन वहां नहीं होता। पर मैंने अपने को ऐसा साध लिया है, जब चाहूँ उसे कार्य के साथ-साथ इष्ट के साथ भी जोड़ सकता हूँ।'
अभ्यास रूपी धागे से मन वश में किया जा सकता है। अभ्यास अच्छा हो या बुरा, वह तो करने से ही होता है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे अन्दर परमात्मा स्थित है। मन उससे जितना विमुख होगा उतना ही अशांत होगा। मन को हम जितना रोकने का प्रयास करते हैं, उतना ही वह भागता है। यदि धैर्य, शील और बुद्धि से उस पर नियंत्रण किया जाये तो अवश्य आत्मा में स्थिर हो सकता है।
मन दर्पण के समान चमकीला है। इसमें वस्तुओं का प्रतिबिम्ब पड़ता है। मन है तो जड़, पर चेतन की छाया पड़ने पर यह चेतन के समान हो जाता है। साथ ही इसमें भौतिक पदार्थों के सूक्ष्म चित्र भी अंकित हो जाते हैं। मन इन्द्रियों का स्वामी है, उसमें जिन पदार्थों की छाप पड़ती है, वह इन्द्रियों से उन पदार्थों को माँगता है; इन्द्रियां उन-उन पदार्थों को पकड़ कर मन को समर्पित करती हैं।
मन यदि एक ही तत्व का चिंतन करता है तो द्वंद्व की स्थिति पैदा नहीं हो सकती। मन में एक साथ अनेक आकृतियाँ प्रवेश कर जाएँ, तो शांति नष्ट होगी ही। वस्तुओं के मोह आत्मा खो जाता है। साथ ही सतत विषम सेवन का अभ्यास होने से एकाग्र और स्थिर अवस्था मन को अच्छी नहीं लगती। क्षणिक विषय के आनंद से मन संतुष्ट हो जाता है, इससे परे कोई शाश्वत आनंद है, इसकी जानकारी मन को है ही नहीं।
सतत- साधना और अभ्यास से मन निर्मल एवं शुद्ध हो सकता है। मन को स्वच्छ एवं पवित्र बनाया जा सकता है। उस पर आभासित विषयों की छाप को मिटाया जा सकता है; आत्मा का स्वच्छ प्रकाश दिखाई दे सकता है। आत्मानंद की अनुभूति हो जाती है, एक बार वह आनंद प्राप्त हो जाये तो विषय का आनंद उसकी तुलना में तुच्छ है। अत: मन को साधना ही परम-गति है, कहा भी है - 'मन को साधे सब सधे'। इस प्रकार मन के स्वरूप को यथा-तथ्य जाना जा सकता है।
विद्यालंकार
 
 
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