 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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हमारी चेतना के दो स्तर हैं - संवेदन की चेतना और अध्यात्म चेतना। जब संवेदन की चेतना जागती है, वह प्राणियों की ज्ञान-चेतना को आवृत्त कर उसे मूढ़ बना देती है। मूढ़ प्राणी स्व को भूलकर पदार्थ जगत के प्रति आकृष्ट होता है और कामना लोक में निर्बाध होकर विहार करने लगता है।
कामना के प्रतिष्ठान हैं - इन्द्रिय, मन और बुद्धि। मानव समाज की विकृतियों का मूल कामना ही है। कामना की तरंग जब उठती है, व्यक्ति आपा भूल जाता है। फ्रायड ने काम को मौलिक वृत्ति माना है। वही सब अपराधों और दुखों की जड़ है। पदार्थ के प्रति राग ही काम है। कामासक्ति से दुःख उत्पन्न होता है। कामनाओं का अतिक्रमण जिसने कर लिया, उसने दुःख को समाप्त कर लिया। उसके लिए सम्पूर्ण जगत नन्दन - वन के समान हो जाता है।
प्रत्येक वृक्ष कल्पवृक्ष और प्रत्येक जलधार गंगा हो जाती है। प्रत्येक क्रिया तीर्थ एवं प्रत्येक वचन आप्त-वचन हो जाता है। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति परमात्मामय हो जाती है। राग - चेतना का प्रवाह सदा पदार्थ की दिशा में होता है। यह संसार एक पुलिया है, इसके ऊपर से ही निकल जाना चाहिए, किन्तु इस पर घर बनाने का विचार नहीं करना चाहिए। जो यहाँ घड़ी भर ठहरने का इरादा करेगा वह चिरकाल तक यहीं ठहरने को उत्सुक हो जायेगा।
सांसारिक जीवन तो घड़ी भर का ही है। उसे प्रभु स्मरण में व्यतीत करना चाहिए। बाकि सब व्यर्थ है। असीमित कामनाएँ व्यक्ति को अहिंसा की ओर प्रेरित करती हैं। जितना झूठ उतना ही टेंशन और जितना टेंशन उतने रोग एवं पागलपन होता है। अत: अपेक्षा है कि मनुष्य समाज का दृष्टिकोण मात्र पदार्थ केन्द्रित नहीं होकर परमार्थ या यथार्थ पर केंद्रित होनी चाहिए। जिसकी इच्छाएं जितनी कम होती हैं। वह ही सुखी ही रहता है। अधिक इच्छा वाला व्यक्ति दुखी रहता है।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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