1- भरत विनय सादर सुनिअ करिय बिचार बहोरि ।
करब साधुमत, लोकमत नृपनये निगम निबोरी ॥
2- उमा संतकै इहै बड़ाई। मंद करत जे करहिं भलाई ॥
3-संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन पै कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवै नवनीता। परदुख द्रवै सो संत पुनीता ॥
4- प्रीति राम सो नीतिपथ, चलिय राग रिसि जीति ।
तुलसी संतन के मते, इहै भगतिकी रीति ॥
5- जड़ चेतन गुण दोषमय, विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ॥
जगद्गुरु श्री 108 शंकराचार्य जी महाराज।
गोस्वामी तुलसीदास जी।
श्री रामकृष्ण परमहंस।
'मामेकं शरणं व्रज' ..
यहाँ मैं थोड़े में यही कहूँगा कि यद्यपि संत के अनेक अर्थ होते हैं तो भी 'संत' का सर्वमान्य अर्थ है 'साधु' (और खासकर पहुँचा हुआ साधु)। और भी विचारकर देखें तो केवल विरक्त और त्यागी साधु ही नहीं, गृहस्थ और कर्मयोगी महात्मा भी संत कहे जाते हैं।
और हमें यदि संतों के गुण और लक्षण जानना है तो बाल की खाल निकालने से काम न चलेगा। हमें उनका गुणगान करना चाहिए और बड़े संतों के उदाहरण लेकर उन पर विचार करना चाहिये।
यों तो देखा जाय तो संसार में सभी जगह संतों (Saints) का प्राधान्य देख पड़ता है पर भारत तो संतों और महात्माओं की खानी है। यहाँ के प्रसिद्ध संतों की नामावली भी लिखने लगे तो एक (संतमाल अथवा भक्तमाल नामक) ग्रन्थ तैयार हो सकता है, अतः हम यहाँ पर केवल दो-तीन भक्तों को लेकर दो-एक बातें कहेंगे।
यदि यह देखना है कि संत किस प्रकार के विद्वान, विवेक और परीक्षा पटु आचार्य होते हैं तो जगद्गुरु शंकर को देखिये ये संत ही गुण-दोष सदसत् को पहचानने की कसौटी होते हैं।
तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद् व्यक्ति हेतवः ।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥
अग्नि के समान संत ही खरे-खोटे की परख करते हैं। आचार्य शंकर ऐसे ही संत थे।
दूसरा गुण संतों का है युगानुरूप भाषा में उपदेश करना। आचार्य शंकर ने भी अपने युग के अनुरूप कार्य किया था पर इस बात का आदर्श हम कवि तुलसीदास को ही मानते हैं। क्योंकि कवि जनता के 'मानस' को परखता और समझता है; वह जनता की बातों को प्रिय शब्दों में कह सकता है, वही जनता के लिये अमृत दे सकता है, गोस्वामी तुलसीदास जी ऐसे ही अमृत देने वाले अमर संत कवि थे।
तुलसीदास जी का चरित पढ़िए, उनके ग्रंथों को पढ़िये। आपको संत कवि के सारे लक्षण एक ही स्थान में मिल जाएंगे। जिस प्रकार मध्ययुग में आचार्य शंकरने धर्मसंस्थापन किया था उसी प्रकार अर्वाचीन युग में धर्म का संस्थापन किया है गोस्वामी तुलसीदास ने । आचार्य का ज्ञान और कवि का काव्योपदेश हम देख चुके।
अब यदि संतों की परमहंसी वृत्ति देखना हो तो रामकृष्ण परमहंस को देखिये हमारे जगद्गुरु और गोस्वामीजी में भी यह वृत्ति थी पर परमहंस जी में केवल इसी का प्राधान्य था। उनका जीवन सबका जीवन था, पर उनको देखिये और उसी प्रकार रहिये, उनका कहा मानिये ।
इन तीनों बड़े संतों से विश्व के सभी लोग परिचित हैं। अत: उनका नाम ले लेना भर काफी है। इन तीनों के जीवन में संतों के सभी गुण आ जाते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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