मन में संतोष भी होना चाहिए। संतोष-वृत्ति का उदय हो जाये तो उत्तम सुख का लाभ होता है। मन की शुद्धि संतोष से ही होती है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, यश-अपयश, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्ट एवं प्रसन्नचित्त रहने का नाम संतोष ही है। अपरिग्रह का भाव अपनाकर भौतिक पदार्थों के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। यह अंधी दौड़ है, इसका कोई अंत नहीं है। ये सब साधन-मात्र है, साध्य तो कोई अन्य है। उसी की प्राप्ति का ही प्रयास करना चाहिए।
संतोष का यह भी अर्थ नहीं है कि हाथ पर हाथ धरकर बैठें रहें। आप अपने को भाग्य के भरोसे न छोड़िये। भाग्य बड़ा कि पुरुषार्थ यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। यदि इन दोनों की तुलना की जाए तो इसका समाधान सहज नहीं है। पूर्व जन्म के संचित कर्म ने सिर उठाया, उसे फल देने का अवसर मिला। उससे आपको जी सुख-दुःख, मान-सम्मान, अपमान, जो भी प्राप्त हुआ, वह आपका प्रारब्ध है।
यानि आपके संचित कर्म ने फल देना प्रारम्भ किया है। इसी को भाग्य कहते हैं। तथा वर्तमान क्षणों में उत्साह लेकर आप जी कर्म करते हैं, आपका जो अभीष्ट है, उसे पाने के लिए तीव्रतम प्रयत्न ही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ करते हुवे मन में संतोष बनाये रखना चाहिए। अपरिग्रही बन जीवन में इन भौतिक वस्तुओं के प्रति अधिक रागात्मकता नहीं रखनी चाहिए।
जो कुछ मिल रहा है, जो भी हो रहा है, प्रभु कृपा से हो रहा है। आगे जो होगा, वह भी प्रभु कृपा से ही होगा; ऐसा मानकर कर्म करते रहना चाहिए, इसे ही संतोष कहा जाता है। संतोष आत्मा को पहचानने का सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है।
संतोष ही सबकुछ है। संतोषी व्यक्ति को ईश्वर, निर्वाण, परम-आनंद आदि सब कुछ मिल जाता है। जो कुछ उपस्थित है उसे ठीक से जानो, परमात्मा ने जो दिया है उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। प्रभु का धन्यवाद देते हुए कहो- 'प्रभो! आपने मुझे अवसर दिया है, जीने का, खाने-पीने का, सुनने और देखने का। इसके लिए हम आभार प्रकट करते हैं।
'आत्मनिरीक्षण का यह विलक्षण दृष्टिकोण है, असंतोष इसका विरोधी है। उससे चिंता और तनाव होता है। आकांक्षाएं सताती हैं, पर संतोष से व्यक्ति भार-रहित हो अपने को हल्का अनुभव करता है। संतोष से बड़ा जीवन-काल में अन्य कोई सुख नहीं है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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