Published By:धर्म पुराण डेस्क

भारत की लोक-संस्कृति की वो ख़ासियतें .. जो हर भारतीय को पता होना चाहिए

भारत की लोक-संस्कृति की वो ख़ासियतें .. जो हर भारतीय को पता होना चाहिए

जनजीवन और संस्कृति

लोक संस्कृति

लोक संस्कृति का अर्थ- लोक दर्शन या लोक व्यवहार है। कृति, प्रकृति और संस्कृति परस्पर गुंथे विधे हैं। कृति पहले प्रकृति होती है। लोक रुचि और लोक कला के योग से प्रकृति का रूपान्तरण कृति हो जाता है। कृति की प्रकृति का कलात्मक अनुरूप कहा जा सकता है। संस्कारित कृति संस्कृति है। अर्थात कृति, प्रकृति और संस्कृति का कुल गोत्र एक ही है। संस्कृति की शुरूआत व्यक्ति के बहुत निकट से होती है और दूर, बहुत दूर तक फैल जाती है यहाँ तक कि समूचे लोक में फैल जाती है और लोक संस्कृति का नाम ग्रहण कर लेती है। लोक संस्कृति व्यक्ति के उठने-बैठने, चलने-फिरने, चूल्हा-चक्की, खेल-कूद और समाज के साथ निर्वाह किये गये नाना प्रकार के व्यवहारों का एकीकृत नाम है।

लोक और संस्कृति एक दूसरे से गहरे स्तर पर जुड़े हैं। लोक, संस्कृति को अस्तित्व देता है और संस्कृति लोक को व्यक्तित्व देती है। लोक संस्कृति का निर्माण करता है फिर उसी से ढलता है। संस्कृति विहीन लोक की कल्पना निर्मूल है। संस्कृति मानव समूह के हर वर्ग की अनिवार्यता है। मानव की मूल प्रवृत्तियों संस्कृति के विधायी तत्व भी हैं और विकास प्रक्रिया में सहायिका भी है। अहं, भय, प्रेम, करुणा और भूख आदि मूल प्रवृत्तियों लोक जीवन को संचालित करती हैं और इसी से लोक संस्कृति की संरचना और विकास यात्रा होती है।

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"संस्कृति का निर्माण मनुष्य के लिए स्वाभाविक है किन्तु संस्कृति स्वयं मानव की कृति है और व्यक्ति संस्कृतिकरण की प्रक्रिया द्वारा उसे अपनाता है।" डॉ. श्यामाचरण दुबे आवश्यकताएँ संस्कृति संरचना का मूल सेतु हैं। हर आविष्कार के पीछे आवश्यकता की भूमिका रही है। मनुष्य को यौन चेतना ने प्रेम, प्रणय और रागात्मक सम्बन्ध की सृष्टि की है। स्त्रीपुरुष के दैहिक सम्बन्ध को वैवाहिक स्वीकृति लोक द्वारा मिली। दाम्पत्य जीवन का विकास और सन्तानोत्पत्ति आदि स्वाभाविक क्रियाओं को सामाजिक मान्यता मिली, इन तमाम सरोकारों से लोक संस्कृति प्रकट होती है। विवाह संस्था की स्थापना ने लोक मानस को निर्माण और संग्रह की ओर प्रवृत्त किया।

पति-पत्नी को मर्यादित और सुरक्षित यौन जीवन यापन के लिए गृह निर्माण और अर्थ संग्रह की आवश्यकता महसूस हुई। फलतः गृह, माम, नगर, महानगर का निर्माण हुआ और उसी से सम्बन्धित संस्कृति की रचना हुई। लोक जीवन में सामाजिकता विकसित हुई। भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास हुआ। लोक समाज में नाना प्रकार के पर्व, उत्सव और त्यौहार का आगमन हुआ। मेले और तीर्थ यात्राओं को मान्यता मिली। विविध वर्णी गत्यात्मक लोक संस्कृति संगठित हुई| लोक संस्कृति ऊपर की वस्तु नहीं अपितु भीतर की ऊर्जा है। समय साक्षी है कि बाहर की लड़ाई तोप, तलवार और राकेटों से होती रही, परन्तु भीतर का युद्ध सदा सांस्कृतिक मूल्यों से लड़ा गया है। युद्ध, व्यक्ति और अस्त्र-शस्त्र नहीं लड़ते, व्यक्ति का चरित्र लड़ता है। लोक मूल्य लड़ते हैं। दुनिया की जबर्दस्त कौम अंग्रेज जिनके साम्राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था, साबरमती के संत की हुंकार से पलायन कर गये। गांधी जी निहत्थे थे। लोक संस्कृति की ऊर्जा ने उन्हें अजेय और अज्ञातशत्रु बनाया। गांधी तो हाड़-मांस के मामूली पिण्ड थे। लोक मूल्यों से उन्होंने सत्य, अहिंसा और असहयोग के हथियार गढ़े और उनका अहिंसक प्रयोग किया।

 लोक संस्कृति सतत प्रवाहमान जीवन धारा है जो अपने समय की चुनौतियों का मुकाबला करती हुई आगे बढ़ती है। लोक संस्कृति जड़ धारा नहीं बल्कि विकासोन्मुख महा प्रवाह है। लोक संस्कृति का अपना अतीत होता है, जो वर्तमान के धरातल पर नाना रूपों में प्रकट होता है। हर युग की लोक संस्कृति में कुछ न कुछ भिन्नता होती है। लोक संस्कृति के सम्बन्ध में श्रीधर दीक्षित का मानना है कि- "मेरी दृष्टि में लोक विराट अभिव्यक्ति है, समाज उसी लोक में से बीना बटोरा गया एक छोटा समूह है। संस्कृति लोक से प्रारम्भ होकर, कुछ गुण और रूपों में भिन्न होकर समाज में आती है और सभ्यता संस्कृति से हटकर निरन्तर परिवर्तन झेलती हुई आगे बढ़ती हुई प्रक्रिया है।" लोक संस्कृति, प्रणय, विरह, प्रथा, परम्परा, शिल्प, संगीत, वाद्य आदि की बहुविध अर्थध्वनियों को अपने में सहेजती-समेटती है। नागर संस्कृति यदा-कदा भौतिकता से आक्रान्त और अपवारित हो जाती है।

लोक संस्कृति किसी भी प्रभाव और प्रहार को झेलने में समर्थ है- जब साहित्य राज प्रासादों के विशाल कक्षों में बन्द हो गया, तब प्रणय का पावनकारी मुक्तिनाद मामवधूटियों एवं प्रणाम तरुणों के कंठों से अमराइयों के बीच फूटा, तब साहित्य की सरस्वती सहस्रधारा होकर लोककंठ पर तरंगित हुई, तब संस्कृति अतर्क्य विश्वासों एवं प्रेरणाओं का आधार लेकर मीरा की भक्ति के चरणों में घुंघरू बन गई, तब वह लक्ष-लक्ष प्राम निवासों एवं दीवारों पर शिल्प बनकर उभरी, तब उसने सहस्रशः शिलाओं को जीवित अहल्या का रूप दिया, संगीत और वाद्य उसकी झंकार से मुखरित हो गये। जीवन अगणित तरंगों में बहा, अगणित वाद्यों में बजा और अगणित गीतों में फूट उठा। यही सब आत्म प्रकाश लोक संस्कृति है।

रामनाथ सुमन लोक संस्कृति, लोक धर्म की समवाहक है। सादगी संयम, सदाचार, सहयोग, श्रम आदि गुण लोक जीवन में प्रतिष्ठित होते हैं। लोक मानस, लोक-परलोक, कथा-कीर्तन, जन्म-पुनर्जन्म की मान्यता को सहज हो स्वीकार कर लेता है। लोक संस्कृति अर्थ और अधिकार की अपेक्षा त्याग और कर्तव्य की पक्षधर है। श्रम साधना और कर्म निष्ठा लोक संस्कृति के केन्द्रीय सूत्र हैं। लोक मानस लाभ-अलाभ की अधिक चिन्ता नहीं करता। "न प्राणिलाभाधिको लाभः कश्चन विद्यते"। महाभारत, शान्ति पर्व 180/12-12 लोक संस्कृति का अभिप्राय लोग संस्कृति है। पाम, लोग का समानार्थी है। उपभोक्तावादी संस्कृति और औपनिवेशिक नागरिकता ने लोक संस्कृति की मूल धारा आध्यात्मिकता का शोषण किया। लोक जीवन की सादगी, सदाशयता और कर्म निष्ठा पर आंच आई। माम उजड़े, परिवार टूटे, लोक संस्कृति प्रदूषित हुई| कवि पन्त के शब्दों में - यह तो मानव लोक नहीं रे, यह तो नरक अपरिचित । यह भारत का माम, सभ्यता संस्कृति से निर्वासित ॥ अनेकानेक झंझावातों के बावजूद लोक संस्कृति की आत्मा अमर रही। काल विशेष में सुप्त-सी जरूर हुई पर विलुप्त नहीं हुई।

इसका कारण है लोक संस्कृति ने आत्मवाद को श्रेय दिया है। अध्यात्म को पाथेय बनाया है। लोक संस्कृति ने आत्म तत्व को सर्वोपरि और सर्वप्रिय माना है। महल और मड़ई, प्राम और नगर, तमाम लोक जीवन में आत्मोपासना की प्रतिष्ठा है, माम्य बाला की अभिव्यक्ति कितनी सार्थक है - फागुन फगुआ बीत गये उधो, हरि नहि आवे मोर। अबकी जो हरि मोर ऐहैं, रंग खेलब झकझोर ॥ अद्भुत आध्यात्मिकता और दिव्यता इस सरस लोक गीत से छलकती है। वस्तुतः लोक संस्कृति में भक्ति की गंगा, प्रेम की यमुना और आत्मा की सरस्वती का चिन्मय अवतरण होता है| सत्य-शिवं-सुन्दरं लोक संस्कृति का प्राण तत्व है। रामचरित मानस में वर्णित शबरी और निषाद की कथा लोक संस्कृति के अध्यात्मवाद के समर्थन में है लोक संस्कृति और प्रातिभ संस्कृति सर्वथा भिन्न है- लोक संस्कृति का निजी चरित्र होता है। निजता उसकी पहचान है लोक संस्कृति, प्रातिभ संस्कृति की अनुगामिनी नहीं होती। सच तो यह है कि प्रातिभ संस्कृति ही लोक संस्कृति से रस और जीवन ग्रहण करती है। लोक संस्कृति में अद्भुत भावाभिव्यक्ति की ताकत होती है। लोक कल्याण, लोक संस्कृति की मूल चेतना है। लोक मानस दीपक के बुझने की कल्पना नहीं करता। वह दीपक के जलते रहने की मंगल कामना करता है। लोक संस्कृति का धारक दूकानदार, दूकान बन्द करना, वाक्य नहीं बोलता।

दूकान का समय हो गया जैसा सारगर्भित उद्गार प्रकट करता है। "यद्यपि शुद्ध, लोक विरुद्ध, नहि करणीयं" मुहावरा लोक संस्कृति की गरिमा को रेखांकित करता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की उदारधारा लोक संस्कृति में प्रवाहित होती है। लोक जीवन 'विश्व प्रेम' का श्रेय होता है। लोक संस्कृति का निर्मल रूप वनवासियों के बीच जाकर देखा जा सकता है। रहन-सहन, वेश-भूषा, नृत्य-संगीत, प्रथा-परम्परा अलग अलग होते हुए भी सबका मूल सूत्र एक ही होता है, संस्कृति के पुरोधा विवेकानन्द, गांधी प्रकृति ने लोक संस्कृति से आत्मानुभव अर्जित कर विश्वप्रेम, करुणा और मैत्री का सन्देश दुनिया को दिया है। लोक संस्कृति वर्तमान में फलती-फूलती अवश्य है पर वह विगत के प्रभाव से निरन्तर संपृक्त रहती है। लोक जीवन का यथार्थ दर्शन लोकगीतों और लोक कथाओं में मिलता है आज भी राम और सीता नन्दलाल लोकाभिव्यक्ति के आधार बने हुए हैं लोक कंठों से "बियाहि लाये रघुवर जानकी का या “भुंइया परे नंदलाल" के बोल मुखरित होते हैं। “वनरा-बनरी लोक गीतों में लोक जीवन की झांकी उजागर होती है। इस पड़ाव पर लोक संस्कृति और लोक साहित्य एकाकार होते हैं। सूत्र रूप में कहा जाय तो लोक साहित्य लोक संस्कृति को आत्मा है। दोनों का सम्बन्ध अभेद है।

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