Published By:अतुल विनोद

मैं निस्वार्थ क्यूँ बनूं?...... P अतुल विनोद

मैं निस्वार्थ क्यूँ बनूं? The Pursuit of Selflessness by हमारा पूरा जीवन हमारे ही ऊपर  केन्द्रित है … मैं कैसे आगे जा सकता हूं? मैं कैसे सफल हो सकता हूं? मैं कैसे धन कमा सकता हूं? मैं कैसे स्वस्थ रह सकता हूं? मेरे रिश्ते कैसे बेहतर हो सकते हैं? मैं कैसे आकर्षण का केंद्र बन सकता हूं? मैं सब को कैसे प्रभावित कर सकता हूं? मैं कैसे उच्च पदों पर पहुंच सकता हूं?

मैं कैसे सबसे सुंदर दिख सकता हूं? मैं दुनिया में सबसे ज्यादा ताकत कैसे हासिल कर सकता हूं? यही सब सवाल दिन-रात हमारे जहन में चलते हैं|  इसी को सेलफिशनेस कहते हैं हिंदी में इसे स्वार्थ कहते हैं|  प्रैक्टिकली ये संभव नहीं कि हम पूरी तरह से पर-केंद्रित(Selfless) हो जाएँ| कहना आसान है कि निस्वार्थ और परमार्थी बनो,  लेकिन स्व-अर्थ के बिना परमार्थ  से क्या फायदा होगा? जब तक मैं खुद सुखी संपन्न और पसंद नहीं हूं तो मैं दूसरों को क्या दे सकता हूं? इसीलिए हम ज्यादा से ज्यादा आत्म केंद्रित होते चले जाते हैं|

 “ सेल्फ सेंटर्ड” स्वामी विवेकानंद कहते हैं  “मनुष्य सोचता है मैं क्यों स्वार्थ शून्य होऊँ? नि:स्वार्थी होने की आवश्यकता क्या? और किस शक्ति के बल से मैं नि:स्वार्थी होऊँ। मनुष्य पूछता है कि मैं  मैं क्यों नि:स्वार्थी होऊँ कारण बताओ? क्यों ना मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ? निस्वार्थ होने की बातें सुंदर बहुत लगती है लेकिन क्या ये वाकई प्रैक्टिकल हैं? इसके जवाब में कहा जाता है कि निस्वार्थता ख़ुशी की चाबी है 

"Selflessness is an vital key to spiritualism, marriage, friendships, and relationships. It is also an essential key to happiness and fulfillment. But unfortunately, often overlooked." 

तब तो ठीक है यदि ख़ुशी मिलेगी तो मैं निस्वार्थ बन सकता हूँ| लेकिन ये भी तो स्वार्थ हुआ कुछ मिलेगा इसलिए चाहे ख़ुशी ही मिले यदि न मिले तो निस्वार्थी हो जायेंगे? और अब तक जो मिला है वो? उसका कर्ज नही चुकायेंगे? हम सबके मन में ये सवाल आता ही है कि भाई क्यों अपना भला छोड़कर दूसरों का भला करूँ? भाई बताइए कि मैं क्यों निस्वार्थ बन जाऊं इसमें मेरा कौनसा कल्याण होता है? जब तक मैं अपने बारे में नहीं सोचूंगा स्वार्थी नहीं बनूंगा तो फिर मेरा कल्याण कैसे होगा? 

वाकई ऐसा ही लगता है कि हमें सिर्फ अपने बारे में सोचना चाहिए, अपने हक के लिए छीनना भी पड़े तो गुरेज नहीं करना चाहिए? हम दरअसल  उपयोगिता वादी जगत में रहते हैं|  लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि हमें जो भी कुछ हासिल  हुआ है वो किसी न किसी के परमार्थ के कारण हासिल हुआ है|  

उपयोग की हर वस्तु किसी और ने बनाई है| दिखने वाला ये जगत असीम ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा है| विश्व की एक श्रंखला,  हमें देखने वाली  सारी चीजें एक छोटी सी इकाई है जो उस बड़ी श्रंखला की एक कड़ी भर है| नीति, धर्म, इंसानियत, मानववाद, समाजवाद, निस्वार्थता की बात करते हैं|  ये बात कहां से निकली कि हमें अन्सेल्फिश बनना चाहिए| “निस्वार्थता”(Selflessness) एक ऐसा तत्व है जो झूठा नहीं है इसमें वजन, सच्चाई है| इसके पीछे लाखों-करोड़ों लोगों का निष्कर्ष है, अनुभव है| सबसे बड़ी बात निस्वार्थता का भाव जगाने के पीछे परम चेतना है

| वो लगातार इंसान को आत्मा के जरिए ये चेताती रहती है निस्वार्थ बनो, निस्वार्थ बनो, निस्वार्थ बनो| यदि हम सिर्फ उपयोग और उपभोग करते रहे और इसके बदले समाज को कुछ ना देना चाहे तो क्या होगा? सोचिए की खोज, अविष्कार और निर्माण करने वाले वैज्ञानिकों, श्रमिकों, ज्ञानियों, महात्माओं,  महान पुरुषों ने यही सोचा होता तो क्या आज हम इतनी अच्छी स्थिति में होते? इस दुनिया को गढ़ने में निस्वार्थ भाव से लोगों ने तपस्या, समर्पण और परिश्रम किया है, तभी हम आज इस स्वरूप में पहुंचे हैं| हर एक चीज किसी दूसरे के द्वारा गढ़ी गई है| 

उसके बदले में हम बहुत कुछ नहीं दे सकते| सिर्फ भाव रखकर शायद हम उस ऋण को चुकाने की दिशा में एक छोटा सा कदम उठा सकते हैं| याद रखिये पैसा पॉवर पोस्ट और साधन संसाधन हासिल करने से तात्कालिक ख़ुशी तो मिल सकती है लेकिन ये आपको दुःख देगी यदि इनका उपयोग निस्वार्थ भाव से परमार्थ में न किया गया | आखिर जिस पर आप बैठें हैं वो आपको मिल भले गया लेकिन सब दूसरों के कारण निर्मित हुआ|

 

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