जीव दो तत्वों से बना है पहला तत्व है- जड़ तथा दूसरा तत्व है- चेतन। जीव का जो दिखाई देने वाला व्यक्त शरीर है वह जड़ तत्व से बना है तथा उसका मूल माया है अर्थात् जीव का व्यक्त शरीर माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित हुआ है। दूसरा तत्व जो चेतन है वह जीव के व्यक्त शरीर के अंदर होता है, उसका मूल ब्रह्म है तथा यह दिखाई नहीं देता है अर्थात इस चेतन का स्वरूप अव्यक्त (निराकार) है।
जीव का व्यक्त शरीर परिवर्तनशील होने के कारण नष्ट होता रहता है। परंतु चेतन का अव्यक्त स्वरूप सदा एक समान होने के कारण कभी नष्ट नहीं होता है। जीव के शरीर के नष्ट होने के पश्चात जीव पुनः दूसरा शरीर धारण कर लेता है परंतु चेतन वही रहता है।
जीव केवल अपना शरीर बदलता है। शरीर की मृत्यु के पश्चात जब तक जीव दूसरा शरीर धारण नहीं करता है उस समय तक वह अपने सूक्ष्म शरीर में चेतन के साथ निराकार अवस्था में रहता है।
जीव अपनी जाग्रत, स्वप्न, तथा सुषुप्ति अवस्था में भ्रमण करता रहता है तथा इन तीनों अवस्थाओं में भी चेतन तत्व जीव के साथ हमेशा साथ रहता है। यह जड़ चेतन की गांठ उस समय तक नहीं खुलती है जब तक जीव आवागमन में रहता है अर्थात मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेता है।
जीव की एक चौथी अवस्था और भी है जिसे तुरिया अवस्था कहते हैं। इन जीवों का शरीर स्वप्न का होता है और ये नारायण की नींद में उनके मन के द्वारा बनते हैं। इस प्रकार सपने के टूटने पर सभी जीव नारायण के मन में विश्राम करते हैं यही उनकी तुरिया अवस्था है। सभी जीवों की यह चौथी अवस्था नारायण की इच्छा पर निर्भर करती है। यहां भी जीव की जड़ और चेतन की गांठ कायम रहती है।
जीव को अनादि कहा गया है जीव की यह अनादि अवस्था पांचवी अवस्था है जिसे तुरीयातीत अवस्था कहते हैं। इस सृष्टि तथा समस्त जीवो की रचना करने वाले अक्षर पुरुष हैं। सृष्टि की रचना के पूर्व ये जीव अनादि अवस्था में अक्षर पुरुष के चित्त में कल्पना के संकल्प विकल्प रूपी बीज में रहते हैं। वहां उनके पास माया का शरीर नहीं होता है। यहां जीव की जड़ और चेतन की गांठ भी नहीं लगी होती है।
अक्षर पुरुष का मन ही ब्रह्म है जो निर्गुण है यह माया के तीन गुण के द्वारा निर्मित नहीं हैं। यही ब्रह्म सर्वत्र सृष्टि में एवं जीवों के शरीर के अंदर प्रतिबिंबित होकर चेतन के रूप में व्याप्त है। यह असली ब्रह्म नहीं है बल्कि ब्रह्म का छाया रूप है। असली ब्रह्म तो अनादि है, जो अक्षर पुरुष का मन है। इसे ज्योति स्वरूप कहा गया है तथा इसका स्वरूप निराकार है।
माया भी मूल रूप में अनादि है जो अक्षर पुरुष के चित्त में अपने तीन गुणों को समेट कर निराकार रूप में सुप्तावस्था में रहती है। अक्षर पुरुष का अखंड शरीर है जो माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित नहीं है। अक्षर पुरुष के इस दिव्य शरीर के अंग मन के द्वारा ही उनकी नींद में स्वप्न की सृष्टि तथा जीवों की रचना हुई है।
अक्षर पुरुष की नींद में बनने वाला पहला स्वप्न का पुरुष, काल पुरुष है। काल पुरुष की नींद में पुनः रचना होती है और उसमें अनेकानेक नारायण उत्पन्न होते हैं तथा प्रत्येक नारायण की नींद में पुनः रचना होती है और स्वप्न का ब्रह्मांड एवं जीव बनते हैं। इस प्रकार यह संसार सपने के सपने का सपना है।
यह सब कुछ अक्षर पुरुष की नींद में बनता है, जो परिवर्तनशील है और मिटने वाला है । जब जीव को उस परम तत्व पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का ज्ञान हो जाता है, तब उसकी जड़ चेतन के विकार की गांठ खुल जाती है तथा जीव अपनी अनादि तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त करता है जो अक्षर पुरुष में स्थित है।
बजरंग लाल शर्मा
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
February 24, 2024यदि आपके घर में पैसों की बरकत नहीं है, तो आप गरुड़...
February 17, 2024लाल किताब के उपायों को अपनाकर आप अपने जीवन में सका...
February 17, 2024संस्कृति स्वाभिमान और वैदिक सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा...
February 12, 2024आपकी सेवा भगवान को संतुष्ट करती है
February 7, 2024योगानंद जी कहते हैं कि हमें ईश्वर की खोज में लगे र...
February 7, 2024भक्ति को प्राप्त करने के लिए दिन-रात भक्ति के विषय...
February 6, 2024कथावाचक चित्रलेखा जी से जानते हैं कि अगर जीवन में...
February 3, 2024