Published By:धर्म पुराण डेस्क

त्यागमयी पतिव्रता शैव्या...

त्यागमयी पतिव्रता शैव्या...

भगवान श्रीराम जिस सूर्यवंश में पैदा हुए थे, उसी वंश में बहुत पहले एक प्रतापी राजा हुए हैं। आज भी लोग उनकी कहानी अपनी संतान को सुनाते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कलाकार उनका नाटक करते हैं तो दर्शकों की आँखों से आँसू बहने लगते हैं। उनके जीवन पर फिल्में भी बन चुकी हैं। उन्हें लोग 'सत्यवादी हरिश्चंद्र' के नाम से याद करते हैं।

सत्य तो वह बोलते ही थे, मगर उनका यश इसलिए भी फैला कि वह दान भी खुले हाथों से देते थे। उनके राज्य में हर कोई सुखी था। प्रजा को वह अपनी संतान मानते थे।

उनकी पत्नी शैव्या चंद्रवंशी राजा वीरसेन की पुत्री थी। प्रजा के सामने वह महाराज हरिश्चन्द्र के साथ सिंहासन पर बैठती थी, किंतु महलों में वह हमेशा पति के चरणों के पास बैठना पसंद करती थी। महाराजा और महारानी एक-दूसरे से प्यार भी बहुत करते थे। शरीर से तो वे अलग-अलग थे, मगर दोनों के प्राण एक-दूसरे में समाए रहते थे, जैसे चंदा और चांदनी।

यह कहानी सतयुग की है। उस युग में राजा इस बात का ध्यान रखते थे कि उनके राज में कोई बुराई न रहे; प्रजा यह यल करती थी कि उसका कोई कर्म राज्य के लिए कलंक न बने। प्रजा की हर मांग पूरी करना राजा अपना कर्तव्य समझता था। हर कोई अपना-अपना धर्म निभाता था। प्रजा तो प्रजा, स्वयं राजा भी त्याग और दानशीलता में किसी से पीछे नहीं थे।

राजा हरिश्चंद्र की दानवीरता का यश चारों दिशाओं में फैलता गया। इसकी भनक देवताओं के कानों में भी जा पहुँची। वायु हो या अग्नि, रात-दिन सारी सृष्टि को जीवन का दान देने में कभी पीछे नहीं हटते। लोग उन्हें ही भूलकर एक साधारण राजा का गुण गाने लगें, यह उनसे सहन नहीं हुआ। 

फैसला हुआ कि राजा हरिश्चन्द्र की दानशीलता की परीक्षा ली जाए। इसके लिए प्रचंड स्वभाव के मुनि विश्वामित्र को भड़काया गया। मुनि ने राजा की परीक्षा लेने का संकल्प उठा लिया ।

उसी रात राजा हरिश्चन्द्र गहरी नींद से चौंककर उठ बैठे। शैव्या की नींद भी टूट गई। पति के चेहरे को देखकर पूछा- “क्या हुआ स्वामी? कोई बुरा सपना देखा है क्या?”

“नहीं, बुरा तो नहीं, परंतु बड़ी लाल-लाल आँखें थीं मुनि महाराज की।" महाराज सपने की याद में बोले ।

“सपने में मुनि महाराज?.... क्या कहा उन्होंने?” “दान में उन्होंने मेरा राज-पाट माँगा है।"

"तो दे देते! मुझे न राज-पाट की भूख है न महलों की। मेरे लिए तो आपके चरणों में ही स्वर्ग है, मेरे नाथ! दे दीजिये उन्हें राज-पाट!"

“परंतु उन्हें पाऊँ कहाँ, महारानी? वैसे....सपने में वही आ सकता है जो संसार में मौजूद हो। मैं उनकी खोज में अभी अपने कर्मचारी भेजता हूँ।" और उन्होंने सपने में देखे मुनि का हुलिया बताके आदेश दिया- “जहाँ कहीं भी ऐसे रूप-रंग के मुनि महाराज हों, उन्हें आदर के साथ में रथ पर बैठा लाओ!" 

वह रात उन्होंने मुनि की प्रतीक्षा में काट दी। प्रातः नहा-धोकर प्रभु की आराधना की। फिर तैयार होकर दरबार में आ विराजे महारानी उनके साथ थी। तभी मुनि विश्वामित्र आ पहुँचे। उन्हें देखते ही महाराज हरिश्चंद्र मुस्करा उठे। सिंहासन छोड़कर आगे बढ़े। मुनि महाराज को झुककर प्रणाम किया और बोले- “मैं तो आधी रात से आपकी खोज में था, महामुनि! सम्भालिये यह राज-पाट!” सिर पर से राजमुकुट उतारते हुए कहा- “यह प्रतीक है शासन का। 

आज से यह आपका हुआ!" इतना कहते ही वह शैव्या से बोले- "मुनिवर को प्रणाम करो, देवि!” शैव्या ने सिर झुकाकर प्रणाम किया और मुकुट उतारकर मुनि के चरणों के पास धर दिया।

“आओ चलें, शैव्या!” दानवीर हरिश्चंद्र ने कहा और चल पड़े। “रुको!" मुनि विश्वामित्र गंभीरता से बोले। शैव्या और हरिश्चन्द्र वहीं रुक गए। हरिश्चन्द्र हाथ जोड़कर बोले “आज्ञा मुनीश?" “राज-पाट तो दे दिया, मगर दक्षिणा?” मुनि ने कहा। “जितना चाहें राज-कोष से ले लें।”

"जब सारा राज्य हमारा हो गया, तब राज-कोष भी हमारा हो गया। तुमने और तुम्हारी पत्नी ने जो आभूषण पहन रखे हैं, वे भी हमारे हो गए। केवल तन ढाँकने की धोती तुम्हारी है, शेष सब हमारा। चाहे श्रम करके कमाओ, चाहे अपने आपको बेचो, एक सहस्र मुद्रा दक्षिणा का जुगाड़ करो। तुम्हें एक मास का अवसर दिया जाता है।"

“आपकी आज्ञा सिर-आँखों पर स्वीकार है, महामुने!" यह कहकर शैव्या के साथ हरिश्चन्द्र महल की ओर बढ़े। “कहाँ जा रहे हो? ये महल भी हमारे हैं।" मुनि ने कठोरता से याद दिलाया।

"मुझे स्मरण है, मुनिवर! हम तो अपने पुत्र रोहिताश्व को लेने जा रहे हैं। उसके बाद इधर मुड़कर भी नहीं देखेंगे। एक मास बाद आपकी दक्षिणा का भार उतारने ही आपके दर्शनों को आएंगे।

इस तरह हरिश्चन्द्र, शैव्या और रोहिताश्व केवल एक-एक धोती में वहाँ से निकल पड़े। प्रजा के लोग उनकी दशा पर आठ-आठ आँसू बहाते। जिस प्रजा को सुख पहुँचाने के लिए राजा रात-दिन एक कर देते थे, आज उनको राहों की धूल में सने देख के कलेजे से हूक-सी निकल जाती। 

उन्हें भीख देने की हिम्मत कौन करता? सिर पर छाँव नहीं, लेटने को नंगी धरती, भीख माँगने की आदत नहीं, मज़दूरी भी करना चाहें तो कौन मज़दूरी देगा? इससे तो दास बनके जीवन काट लेना ही भला! यही सोचकर चलते-चलते काशी जा पहुँचे।

पति को सोच में डूबे देखा तो शैव्या बोली- "प्राणनाथ! आप किस चिंता में डूब गए? मेरे लिए आप परेशान न हों। पुत्र के साथ मैं कहीं भी इस शर्त पर बिक जाऊँगी कि कोई पराया पुरुष मुझे स्पर्श न करे। चौका-बुहारी, धोना-माँजना तो हर स्त्री का जन्मजात गुण है। कोई-न-कोई सेठ मुझे मेरी शर्त पर अवश्य खरीद लेगा।"

हरिश्चंद्र की आँखें डबडबा आईं। किंतु दूसरी कोई राह भी नहीं थी। दक्षिणा चुका कर ही चैन की साँस मिल सकती थी। शैव्या को एक सेठ ने पाँच सौ मुद्रा में खरीद लिया। हरिश्चंद्र के लिए कोई इतना मोल कैसे देता? आखिर मरघट के स्वामी ने उनकी गठीली देह देखी तो पाँच सौ मुद्रा दे डालीं। 

इस तरह मुनि की दक्षिणा चुकाई गई। परन्तु मुनि विश्वामित्र तो क्रोध में आग बबूला हो उठे। हरिश्चंद्र ने राजपाट इस तरह दे दिया, जैसे कोई मुट्ठी भर चावल दान कर दे। स्वयं को, पत्नी को और बच्चों को बेचकर दक्षिणा भी चुका दी। इस तरह तो हरिश्चंद्र परीक्षा की कसौटी पर कुंदन बनके खरे उतरे थे।

अपनी हार पर मुनि झुंझला उठे। उन्होंने क्रोध में हरिश्चंद्र को और भी सताने और रुलाने की ठान ली। विश्वामित्र के भेजे नाग ने उनके बालक को ढस लिया। शैव्या अपने पुत्र की लाश पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी। जब होश आया तो आधी रात हो गई थी। कफन बनाने के लिए अपनी आधी धोती फाड़ डाली। उसी में शव लपेटकर मरघट जा पहुँची।

आधी रात में नारी-कंठ से विलाप सुनकर मरघट का पहरेदार चौंक पड़ा। शायद उस नारी का बेटा मर गया था। पास जाकर पहरेदार ने लाठी जमीन पर बजाई और बोला- "देवि! बालक का संस्कार बाद में करना, पहले मरघट का कर चुका दो।"

“कहाँ से चुकाऊँ कर? तन की आधी धोती फाड़कर तो कफन ओढ़ाया है अपने लाडले को।" शैव्या बोली।

उसकी आवाज पहचानी तो हरिश्चंद्र की आँखें फट गईं। आगे बढ़कर सूरत देखी तो कलेजा फट के रह गया। आकाश को मुँह उठाके वह चीख उठे- “मेरे कारण राज-पाट छूटा, मेरे कारण जीवन बेच दिया, आज मेरे कारण तुम्हारी ममता का सहारा भी छूट गया? कितना बुरा हूँ मैं!"

शैव्या उन्हें पहचानते हुए बोली- “नाथ! आप क्यों अपना मन छोटा करते हैं? मुझ अभागिन के लिए स्वयं को मत कोसिए। सारा दोष मेरा है। न मैं अपने लाडले को फूल लेने जाने देती, न यह प्राण गँवाता। बस, इसका संस्कार कर लूँ, उसके बाद कभी अपना मनहूस चेहरा आपको नहीं दिखाऊँगी।"

"देवि! चाहे मैं तुम्हारी दशा जानता हूँ, किंतु मरघट का कर तो चुकाना ही होगा। शव का कफन ही आधा फाड़कर दे दो। मेरी स्वामी के प्रति निष्ठा बनी रहने दो।"

“ऐसा ही होगा, प्राणनाथ! आपके नाम पर कलंक नहीं आने दूँगी।" इतना कहते ही शैव्या ने कफन फाड़ने को हाथ बढ़ाया। “बस देवि, बस!” मुनि विश्वामित्र ने प्रकट होकर कहा- “धन्य हो तुम दोनों। महाराजा हरिश्चंद्र यदि दानशीलता में महान् हैं तो महारानी, में तुम्हारे त्याग की महिमा भी कम नहीं। तुम दोनों ने देवताओं को भी परास्त कर दिया। उठो रोहिताश्व! अपने माता-पिता के साथ जाओ और राजपाट सँभालो। 

जब-जब दानवीरों की चर्चा होगी, तब-तब महाराजा हरिश्चंद्र को याद किया जाएगा। पति के लिए त्याग करने वाली देवियों में शैव्या का नाम अमर रहेगा।"


 

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