Published By:धर्म पुराण डेस्क

रात्रि सूक्त के भाव ही दुर्गा सप्तशती में अभिव्यक्त हैं

दुर्गासप्तशती एक तांत्रिक ग्रन्थ है जिसमें ईश्वर की आराधना माता (शक्ति) के रूप में की गयी है। यह एक गहन ग्रंथ है जिसमें शक्ति पूजा की विधि बतायी गयी है। 

इसके साथ ही इसमें रांगा चकारी कथाएं भी हैं जिसमें यह बताया गया है कि साधक की आध्यात्मिक प्रगति में आने वाली अनेक राक्षसी बाधाओं को विनष्ट करने के लिए शक्ति विभिन्न रूप धारण करती है और साधक को आत्मज्ञान की अवस्था तक पहुँचाने के पश्चात कैसे स्वयं परमात्मा (शिव) में मिल जाती है।

स्वामी ज्योतिर्मयानंद जी प्रकृति प्रतिदिन रात के बाद उषाकाल का सृजन कर दिन का स्वर्णिम प्रकाश प्रस्तुत करती है। यही क्रम देवी पूजा की आध्यात्मिक योजना के अंतर्गत भी अपनाया जाता है। रात का भयानक अँधियारा तीन अवस्थाओं में व्यतीत होता है:- 

1. गहन अंधकार जिसका प्रतीक काली या दुर्गा हैं.

2. सूर्योदय के पूर्व का उषाकाल जिसका प्रतिनिधित्व देवी लक्ष्मी करती है.

3. प्रखर सूर्योदय जिसकी परिचायिका ज्ञान की देवी सरस्वती हैं। 

इस प्रकार सूर्योदय के बाद साधकों को स्वर्णिम ज्ञान ज्योति तक दिग्दर्शन करने के पश्चात रात्रि देवी स्वयं दृष्टि से ओझल हो जाती हैं मानों वे स्वयं प्रकाश के अनन्त सागर (परमात्मा अथवा शिव) में समाहित हो गयी हों ।

इसी प्रकार आध्यात्मिक पथ पर साधक सर्वप्रथम काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मलों को विनष्ट करने के लिए देवी महाकाली की कृपा प्राप्त करता है। तब वह देवीलक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने योग्य हो जाता है जो उसके व्यक्तित्व को विभिन्न प्रकार के सद्गुण रूपी रत्नों से विभूषित कर देती हैं। 

इसके कारण उसका अचेतन मन जो पहले कुसंस्कारों की काली घटा से भरा हुआ था, अब अच्छाई, आध्यात्मिक विस्तार और दिव्य गुणों के शुभ संस्कारों से भर जाता है। अब काली भयानक घटाओं का रूपान्तरण उषाकाल की स्वर्णिम और अरुणिमा लिये प्रकाश के देवदूतों के रूप में हो जाता है। 

रहस्यवादी ग्रन्थों में इसी अवस्था को देवी लक्ष्मी की पूजा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। अंत में अपने ज्योतिर्मय परिधान में प्रातःकाल की देवी का आगमन हो जाता है जो आकाश में उपस्थित अंधकार के एक-एक कण को अपने प्रखर किरणों के झाड़ू से बाहर कर दूर कर देती हैं। 

ठीक ऐसे ही जब कोई साधक चित्तशुद्धि करने के पश्चात अपने व्यक्तित्व को सद्गुणों से सुशोभित कर लेता है तो उसे बुद्धि का रूपान्तरण अन्तःप्रज्ञा में होने का अनुभव होता है। देवी सरस्वती ही अन्तःप्रज्ञा की ज्योति की मूर्तिमान अभिव्यक्ति हैं। वे ज्ञान प्रदान करने वाली देवी हैं। वे संसार में जो भी सत्य, शिव और सुन्दर है, उन सभी कलात्मक और सृजनात्मक प्रेरणाओं का मूल स्त्रोत हैं। 

अंत में प्रातःकाल समाप्त हो जाता है और सबों को प्रकाशित करने वाला पराशक्ति अथवा ब्रह्मन् रूपी सूर्य अपनी समस्त प्रखरता में चमकने लगता है।

इस प्रकार महाकाली के रूप में देवी मल को दूर कर महालक्ष्मी के रूप में साधक के व्यक्तित्व को सद्गुणों की देवी सम्पत्त से विभूषित करती हैं और महासरस्वती के रूप में उसे अन्तः प्राज्ञिक दृष्टि प्रदान कर स्वयं परब्रह्म परमात्मा में समाहित हो जाती हैं।


 

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