आत्मा नहीं मरती. वो अजर-अमर-अविनाशी है. आत्मा ही शरीर छोड़ दूसरा शरीर धारण करती है. शरीर मरता है अर्थात शरीर की ही अवस्था बदलती है|
आपके सत्कृत्य आपकी पहचान होती है। जिस काया से अच्छे बुरे कार्य होती है इस अनुरूप उनका पहचान बनता है। उस रूप से वे जाने जाते है। पर वास्तव में आत्मा केवल एक ऊर्जा शक्ति है जो जीव में रहकर उसे संचालित करने हेतु केवल ऊर्जा प्रदान करती है। पर वो निर्लीप रहती है। इसलिए देवता सत्कर्मों के कारण बनते और पूजे जाते है। पूजा निज स्वरूप की होती है और आत्मा को जाना जाता है।
क्योंकि जब कोई साधक पूजा करेगा तो ही उसे आत्मा की अनुभूति होगी और जब वो आत्मा को जानने की जिज्ञासा करेगा फिर उसे आत्मपद की प्राप्ति होगी ।
आत्मा नहीं शरीर मरता है ,देवता अमर हैं और हम मनुष्य उनका सम्मान करते हैं या पूजा करते हैं जो हमें कुछ देते हैं या कुछ दे सकने की समर्थ रखते हैं|
बिना शरीर के किसी की सत्ता नहीं है चाहे वह देवता हो चाहे मनुष्य हो। भगवान श्री कृष्ण, श्री राम, वामन अवतार जैसे अनंत साक्ष्य ऐसे मिलते हैं जिनमें इस शरीर को देवताओं के द्वारा ही नहीं अपितु ईश्वर के द्वारा भी ग्रहण किया गया है। देवता नश्वर नहीं है, सिर्फ देवता ही आज भी बिना भेद लोगों का ख्याल रखते है ।
देवताओं के शरीर रूप बनाकर पूजा करना द्वैत ध्यान का ही प्रथम चरण होता है। चेतना के स्तरों में कौन कहां है ये तत्व ज्ञानी समझ सकता है अथवा ध्यानी स्वयं ही। साधारण व्यक्ति को साधना के प्रथम चरण में ध्यान हेतु अवलम्बन की आवश्यकता होती हैं वह चाहे मूर्ति ध्यान हो, मंत्र ध्यान हो या त्राटक हो सकता है।
आस्था जागृत करने के लिए एक स्वरूप की आवश्यकता होती हैं। निरूप भगवान में आस्था लगाना इतना आसान नहीं होता। इसलिए हर जगह मूर्ति की स्थापना से पहले प्राण प्रतिष्ठा हवन यज्ञ करा करके पूजा की जाती है जिसके कारण इंसान के विश्वास और गुरुओं के अभिमंत्रित मंत्रों द्वारा उसमें सभी लोगों को प्रभु का स्वरूप दिखाई देता है, क्योंकि यही देवताओं का मूल स्वरूप है।
देवताओं ने अपने जैसे रूप स्वरूप के प्राणी की रचना की और उसे मनुष्य की संज्ञा दी। साकार से निराकार की यात्रा के लिए साकार सिर्फ अनुलंबन हे। साध्य नही- साध्य की उपलब्धि पर साकार स्वयं तिरोहित हो जायेगा सत्य है.
परन्तु देवताओं के प्रतिरूप केवल पहचान के लिए बनाई जाती है, जब उस पहचान रूपी देव प्रतिमा में आवाहन करके प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद जब प्रभु समावेश करते हैं, तब उस ईश्वर के आत्मा की पूजा की जाती है, और जब विसर्जन के बाद अब केवल शरीर रह जाता है तो कोई पूजा नहीं करता। मरने वाला आत्मा! शरीर पंचतत्व जलता हे। आत्मा शरीर त्यागती हे। सूक्ष्म शरीर रहता हे।
अन्योऽसावहमन्योऽस्मीत्युपास्ते!योऽन्यदैवतम् !
न स वेद नरो ब्रह्मन् स देवानां यथा पशु:॥
वह परमपिता परमात्मा मेरे से भिन्न है और मैं परमात्मा से भिन्न हूँ, इस प्रकार ज्ञान समझकर जो जीव अन्य देवी, देवताओं की उपासना करता है वह जीव परमात्मा को नहीं जानता है!
जैसे मनुष्यों को लादने के लिए पशु होते है, वैसे ही वह जीव भी देवताओं को लादने वाला एक पशु ही होता है| (श्रुति) पूजा करने के लिए आधार होने पर आसान हो जाता है। जैसे जैसे परमात्मा से जुड़ाव (योग) होता जाता है। मूर्ति की आवश्यकता समाप्त हो जाती है ।
जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राम मय जानि।
बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।
(क्योंकि कण कण में ईश्वर है)|
प्रश्न उठाने वालों से एक प्रश्न - जब कण कण में ईश्वर है, तो मूर्ति रूपी कण में क्यों नहीं ?
शरीर के भी भेद हैं...स्थूल और कारण शरीर मरते हैं, लेकिन सूक्ष्म शरीर कभी नहीं मरता|
नाशवान मानव शरीर में मौजूद आत्मा+जीव =जीवात्मा के शरीर छोड़ते ही जड़ काया अचेतन अवस्था को प्राप्त हो कर नाशवान मूल स्वरूप की और सफर तय करने लग जाती हैं।
संसार में मानव शरीर से मानव शरीर मोह करता हैं और उसकी याद और उनके कर्म तथा उनके द्वारा दिया गया मार्गदर्शन की जरूरत तथा उनकी पहचान कायम रखने के लिए घरों में फोटो और पुरातन काल में मूर्तियां, पुतले, बुत, आदी स्थापित करने का चलन रहा है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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