मरणोत्तर जीवन को अब झुठलाया नहीं जा सकता। इस संदर्भ में इतने और ऐसे प्रमाण मिले हैं कि उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि मरने के बाद सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता। जीव-चेतना का अस्तित्व तब भी बना रहता है और समय आने पर वे सेवा-सहायता करती हैं और सीमाओं की रक्षा भी।
ऐसी ही दो पितृ आत्माओं की गाथा पिछले दिनों प्रकाश में आई। इनमें से एक कैप्टन हरभजन सिंह की आत्मा थी तथा दूसरी जसवंत सिंह रावत की। दोनों ही अशरीरी स्थिति में भी सीमाओं की रक्षा में प्राणपण से जुटे रहे।
कैप्टन हरभजन सिंह पंजाब रेजिमेंट की 23वीं बटालियन के सिपाही थे। उनकी मृत्यु सिक्किम स्थित नाथुला में भारत-चीन सीमा पर तब हो गई थी, जब वे अपने साथियों के साथ ड्यूटी पर थे और सीमा पर गश्त लगा रहे थे। उनकी मृत्यु ऐसे समय में हुई, जब वे अपने साथियों से तनिक पीछे रह गए और उन पर बरफ की चट्टान गिर पड़ी। वे उसी के नीचे दब गए।
उनके साथियों का कहना है कि जब कई दिनों तक उनका कोई पता नहीं चला तो उनकी आत्मा ने अपने साथी सैनिकों के स्वप्न में आकर बताया कि उसका शव अमुक स्थान पर बरफ के नीचे दबा पड़ा है। उसके बाद ही उसकी ढूँढ़-खोज की गई और मृत शरीर का अंतिम संस्कार किया गया।
जब उनकी मृत्यु हुई, तब उनकी आयु 26 वर्ष थी। इसके बाद से लगातार हरभजन सिंह की आत्मा अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थी। बताते हैं कि सर्दी के दिनों में जब सिक्किम की चोटियां बर्फ से ढक जाती थी, तब भी उनको आत्मा वहां पर ड्यूटी देती देखी गई। इसे चीनी गश्ती दलों ने भी देखा था और वे इस बात से हतप्रभ थे कि मज्जा तक को ठिठुरा देने वाली इस ठंड में बिना गर्म कपड़ों के गश्त लगाने और सीमा की सुरक्षा करने वाला सशस्त्र भारतीय कौन है ?
बताया जाता है कि हरभजन की आत्मा ने अपने अधिकारियों को यह विश्वास दिला रखा था कि वे सीमा रक्षा की चिंता छोड़ दें और उस पर भरोसा रखें।
सीमा पर कोई भी गड़बड़ी होने पर वह 70 घंटे पूर्व इसकी सूचना दे देगा। उनके इस आश्वासन पर अधिकारी सीमा सुरक्षा के प्रति निश्चित थे। उनकी आत्मा के लिए मृत्यु के बाद भी बैरक और ऑफिस सेना ने आवंटित कर रखा था। इतना ही नहीं, भारत-चीन की सेनाओं की फ्लैग मीटिंग के समय उनके लिए कुर्सी लगाई जाती और वह खाली रखी जाती। माना यह जाता कि उक्त मीटिंग में हरभजन की आत्मा भी सम्मिलित है।
अधिकारियों ने अन्य सैनिकों की भाँति हरभजन की आत्मा को भी सारी सुविधाएं दे रखी थी। सिपाहियों को वर्ष में दो महीने की छुट्टी मिलती तो हरभजन सिंह की आत्मा को भी इससे वंचित नहीं किया गया था। साल में उसे भी दो महीने की छुट्टी मिलती। छुट्टियों के दौरान सिलीगुड़ी एक्सप्रेस में उनके नाम की सीट आरक्षित करवाई जाती।
यात्रा वाले दिन उनके साथी उनका सामान बर्थ के नीचे रखकर बर्थ पर बिस्तर लगाते। उनकी वर्दी भी बर्थ के ऊपर टाँग दी जाती थी। यह सब करने के लिए एक सिपाही को गाड़ी में साथ भेजा जाता। गंतव्य आने पर जालंधर रेलवे स्टेशन पर उन्हें ससम्मान उतारा जाता। वहाँ से उन्हें एक जीप में उनके गांव ले जाया जाता था। इस सेवा के बदले हरभजन सिंह के परिवार को पूरा वेतन दिया जाता। इतना ही नहीं, वरिष्ठता के आधार पर उन्हें पदोन्नति भी दी जाती थी। इसी कारण से एक सामान्य सैनिक से वे कैप्टन बन सके।
अखंड ज्योति के अनुसार यह सिलसिला पिछले 30 वर्षो से चल रहा था, लेकिन विगत कुछ दिनों से हरभजन सिंह की आत्मा अपने अधिकारियों से सेवानिवृत्ति के लिए मनुहार कर रही थी। उसे पिछले वर्ष सेवानिवृत्त किया जाना था, किंतु उसकी सेवा में एक वर्ष की वृद्धि कर दी गई थी। अब वह इस वर्ष 15 सितंबर को सेवानिवृत्त होकर अपने गाँव कूकानडाला पहुँच गई। इसके लिए सेना ने बैंडबाजों का इंतजाम कर रखा था और ससम्मान उनकी विदाई की गई।
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