व्यक्ति कोई भी गंदा नहीं होता है, सभी परमात्मा के बंदे हैं। व्यक्ति अपने विचारों के द्वारा गंदा होता है और इन विचारों की उत्पत्ति चित्त में तीन गुणों के द्वारा होती हैं। जब तक व्यक्ति अपने चित्त की वृत्तियों (तीनो गुण) को नहीं सुधारेगा तब तक उसके विचार शुद्ध नहीं होंगे। जब तक उसके विचार शुद्ध नहीं होंगे तब तक उसके कर्म शुद्ध नहीं होंगे। कर्म शुद्ध किये बिना वह निर्मल कैसे हो सकता है?
यदि कोई बिना अग्नि को बुझाए धुंए को समाप्त करना चाहे तो यह संभव नहीं है, क्यों कि धुएं की उत्पत्ति का कारण तो अग्नि है। अग्नि को बुझा देने के बाद में धुआं अपने आप समाप्त हो जाएगा।
इसी प्रकार कर्म की उत्पत्ति का कारण चित्त की वृत्तियाँ हैं। चित्त की वृत्तियाँ शुद्ध होने पर विचार अपने आप शुद्ध होंगे तथा कर्म भी शुद्ध हो जाएंगे।
महामति प्राणनाथ जी कहते हैं कि व्यक्ति को स्वयं अपने आप को अंदर से निर्मल करना होगा। शरीर के बाहर के मैल को तो स्नान करके दूर किया जा सकता है। परंतु चित्त की वृत्तियों का मैल बाहर के स्नान से दूर नहीं किया जा सकता है। अंदर चित्त की निर्मलता के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
इस संदर्भ में एक दृष्टांत है - एक बार भगवान बुद्ध के शिष्य ने उनसे पूछा कि मैं आपका कई वर्षों से शिष्य हूं, आप मुझे ब्रह्म ज्ञान दीजिए।
भगवान बुद्ध ने शिष्य से कहा, "तुम मेरी सेवा तो करो, तुमने कभी मेरी सेवा ही नहीं की। यह ब्रह्म ज्ञान देने के लिए मैं कल तुम्हारे घर पर आऊंगा।"
यह सुनकर शिष्य बहुत खुश हुआ तथा घर जाकर उन्होंने खीर पूरी हलवा की भोजन सामग्री तैयार की। भगवान बुद्ध सुबह स्नान करके कमंडल लेकर चल पड़े, रास्ते में उन्होंने कमंडल में गाय का गोबर रख लिया और शिष्य के घर पहुंच गए।
भगवान बुद्ध कहने लगे भिक्षा दे मां, भिक्षा दे मां। भक्त घर से बाहर आया। भगवान बुद्ध ने उसको अपना कमंडल दे दिया। शिष्य ने कह --
" गुरुदेव ! इसमें तो गोबर भरा है सामान गन्दा हो जाएगा। " भगवान बुद्ध ने कहा, " जो बनाया है डाल दो, मैं खा लूंगा। "
शिष्य ऐसा नहीं कर सका तब भगवान बुद्ध ने उसे ज्ञान दिया, "हे शिष्य! जब यह तुच्छ सामग्री गन्दे पात्र में गन्दी हो जाएगी तो मेरा ब्रह्म ज्ञान तुम्हारे इस मैले चित्त में किस प्रकार ठहरेगा। तुम पहले अपने चित्त को निर्मल करो।"
बजरंग लाल शर्मा,
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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