Published By:दिनेश मालवीय

ज्ञानी दिव्यात्मा में लीन हो जाता है : एक बोधकथा -दिनेश मालवीय

माण्डूक्य उपनिषद में एक श्लोक आता है, जिसका अर्थ है कि जिस प्रकार बहती हुयी नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानी महापुरुष नाम-रूप से रहित होकर दिव्य पुरुष परमात्मा में लीन हो जाता है. इसका तात्पर्य है कि जब तक मनुष्य को पूर्ण ज्ञान नहीं होता, तभी तक उसे लोक-परलोक के कर्मों की चिंता होती है. तभी तक वह संयोग-वियोग सुख-दुःख का अनुभव करता है. उसे पता चल जाता है, कि जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि और वायु से बना शरीर मैं नहीं हूँ. वास्तव में इसमें रहने वाला मैं हूँ. ऐसी ही अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है.

इस सन्दर्भ में एक बोधकथा आती है. एक बहुत मामूली आदमी था. उसका छोटा-सा परिवार था, जिसमें पत्नी और एक बेटा था. उसके पास थोड़ी-सी धन-संपत्ति थी. एक दिन उसने सपना देखा कि वह राजा बन गया है. उसे बहुत धन-सम्पदा और वैभव प्राप्त हो गया है. बहुत-सी सुंदर रानियाँ हैं, दास-दासियाँ हैं. बड़ी सेना है. ये सभी लोग हमेशा उसके हुक्म को मानने के लिए तैयार रहते हैं.

सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसने पाया कि उसके पास तो कुछ भी नहीं है. वह अपनी टूटी खाट पर पड़ा है. दूसरे दिन कुछ डाकू आये और उसके पास जो भी था सब लूट ले गये. उन्होंने उसके पुत्र को भी मार डाला. उसकी पत्नी का रोते-रोते बहुत बुरा हाल हो गया. सारा गाँव सहानुभूति प्रकट करने आया. लेकिन वह मनुष्य न रोया और न उसने कोई दुःख ही प्रकट किया. वह अविचलित और निर्विकार बना रहा.

उसकी पत्नी ने कहा कि तुम पत्थरदिल हो. सब कुछ लुट गया, इकलौता बेटा भी मारा गया, लेकिन तुम्हारी आँखों में आँसू की एक बूँद भी नहीं है. वह बोला कि किसके लिए रोऊँ. एक के लिए या अनेक के लिए ? पत्नी बोली कि शोक तो अपनों के लिए किया जाता है. वैसे तो संसार में रोजाना लोग मरते रहते हैं. सबके लिए कोई नहीं रोता. तुम्हारा एक ही बेटा था, उसके लिए तो तुम्हें दुखी होना चाहिए.

वह व्यक्ति बोला कि कल सपने में मेरे दस पुत्र थे, अपार धन-संपदा थी. राज्य था, वैभव था, आज कुछ भी नहीं है. सब नष्ट हो गया. जब उनके लिए शोक नहीं किया, तो एक पुत्र और खोये हुए थोड़े से धन के लिए क्यों दुःख करूँ? पत्नी ने कहा कि वह तो सपना था, लेकिन हमारे साथ जो घटा, वह तो सच है. पति ने कहा कि रात को जो देखा, वह एक छोटा सपना था और आज जो घटा है, वह एक लम्बे सपने का अंत है. मैंने उसका अनुभव कर लिया है नो नाशवान नहीं है. जिसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है.

जो साधक निश्चयपूर्वक इस उपनिषद में वर्णित ज्ञान का अनुभव कर लेता है, वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है. उसका ही नहीं उसके पूरे कुल का कल्याण हो जाता है. वह सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से परे होकर  पूरी तरह निष्पाप और निर्मल बन जाता है. अंत में वह परब्रह्म में उसी तरह लीन हो जाता है, जैसे नदियाँ समुद्र में लीन हो जाती हैं.  

  

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